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रत्नाकर शतक
अज्ञानी मोही जीव मोह के कारण अपने साथ बन्धे हुए शरीर को और नहीं बन्धे हुए धन, सम्पत्ति, पुत्र, कलत्रादि को अपना समझता है तथा यह जीव मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विभावों के संयोग के कारण अपने को रागी द्वेषी, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी समझता है. पर वास्तव में यह बात नहीं है । ये शरीर, धन, सम्पत्ति, वैभव, स्त्री, पुत्र, परिजन
आदि पदार्थ आत्मा के नहीं, आत्मा का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। पुद्गल जीव रूप नहीं हो सकता है । अात्मा शरीर से भिन्न अमूर्तिक, शुद्ध, बुद्ध ज्ञाता, द्रष्टा है।
देह और आत्मा के भेद ज्ञान को जान कर तथा मोहनी कर्म के उदय से उत्पन्न हुए विकल्प जाल को त्याग कर, विकार रहित चैतन्य चमत्कारी आत्मा का अनुभव करना भेद विज्ञान है। मेद विज्ञानी अपनी बाह्य अखिों से शरीर को देखता है तथा अन्तर्दृष्टि द्वारा आत्मा को देखता है । जो संसार में भ्रमण करने वाले जीव हैं उनकी दृष्टि और प्रवृत्ति इस देह की ओर होती है। इसीलिये किसीको धनी, किसीको दरिद्री, किसीको मोटा, किसीको दुबला, किसी को बलवान, किसीको कमजोर, किसीको सञ्चा, किसीको झूठा, किसीको ज्ञानी, किसीको अज्ञानी के रूप में देखते हैं। पर ये सब आत्म के धर्म नहीं; यह व्यवहार केवल
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