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विस्तृत विवेचन सहित
मत्ताकलने सोदिसल्कनकर्म काण्वंते पालं क्रमवेत्तापं मथनंगेयल घृतमुकावंते काष्ठगळं ॥ तं पादन कायतेरदिं मेयवेरे वेरानेतु । त्तित्तभ्यासिसेलेन कारबुदरिदे ? रत्नाकरावीश्वरा ||६||
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taraराधीश्वर !
जिस प्रकार पत्थर के शोधने से सोना, दूध के क्रम पूर्वक मंथन से aartaal काष्ठ के घर्षण से उत्पन्न होती है उसी प्रकार 'शरीर विज्ञान का अभ्यास करने से क्या
अलग है और मैं अलग हूँ इस भेद अपने आप आत्मा को देख सकना असाध्य है ? ॥ ६ ॥
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विवेचन -आत्मा और शरीर इन दोनों के स्वरूप - चिन्तवन द्वारा भेद विज्ञान की प्राप्ति होती है, यह आत्मा पूर्वोपार्जित कर्म परम्परा के कारण इस शरीर को प्राप्त करता है, 'शरीर और 'आत्मा' इन दोनों के पृथकत्व चिन्तन द्वारा अनादि बद्ध आत्मा शुद्ध होता है। जीव जब यह समझ लेता है कि यह शरीर, ये सुन्दर वस्त्राभूषण, यह दिव्य रमणी, यह सुन्दर पुस्तक, यह सुन्दर कुरसी, यह सुन्दर भव्य प्रासाद - मकान, चमकते हुए सुन्दर वर्तन, यह बढ़िया टेबुल प्रभृति समस्त पदार्थ स्वभाव से जड़ हैं, इनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है, तो यह अपने चैतन्य सत स्वभाव में स्थित हो जाता है ।