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रत्नाकर शतक
ક
विचार करता है,
भौतिक पदार्थ नहीं।
इसीलिये अनुभव के
मसीन या
जाता है ।
आधार पर यह डंके की चोट से कहा जा सकता है कि शरीर से भिन्न चेतन स्वरूप, मूर्त्तिक अनेक गुणों का धारी श्रात्मतत्त्व है । यदि इस आत्मतत्त्व को न माना जाय तो स्मरण, विकार संकल्प, विकल्प आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। सज्ञानी प्राणी ही पहले देखे हुए पदार्थ को देख कर कह देता है कि यह वही पदार्थ है जिसे मैंने अमुक समय में देखा था। अन्य प्रकार के एंजिनों में इसका सर्वथा अभाव पाया यह स्मरण शक्ति ही बतलाती है कि पूर्व और उत्तर समय में देखने वाला एक ही है, जो आज भी वर्तमान है। इसी प्रकार ज्ञान, संकल्प, विकल्प, राग-द्वेष प्रभृति भावनाएँ, काम-क्रोध-मान आदि विकार भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। प्रमेयरत्न- मालाकार ने आत्मा की सिद्धि निम्न प्रकार की है तदहेजस्तने हातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात्सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥
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तत्काल उत्पन्न हुए बालक को स्तन पीने की
अर्थइच्छा होती है; इच्छा प्रत्यभिज्ञान के बिना नहीं हो सकती; प्रत्यभिज्ञान स्मरण के बिना नहीं हो सकता और स्मरण अनुभव के बिना नहीं होता है।
अतः अनुभव करनेवाला
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