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विस्तृत विवेचन सहित
भिन्न है । जीव का स्वभाव चेतन है, और पुद्गल का स्वभाव अचेतन, अतः ये दोनों अपने अपने स्वभाव में स्थित रहते हुए भी परस्पर में मिल जाते हैं।
बन्ध चार प्रकार का माना गया है प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध । प्रकृतिबन्ध स्वभाव को कहते हैं, जैसे नीम की प्रकृति कडवी और गुड़ की मोठी होती है उसी प्रकार बन्ध को प्राप्त हुई कार्माण वर्गणाओं में जो ज्ञान को रोकने, दर्शन को आवरण करने, मोह को उत्पन्न करने, सुख-दुःख देने
आदि का स्वभाव पड़ता है इसका नाम प्रकृतिवन्ध है। अभिप्राय यह है कि आयी हुई कार्माण वर्गणाएं याद किसी के ज्ञान में बाधा डालने की क्रिया से आया हैं तो ज्ञानावरण का स्वभाव; दर्शन में बाधा डालने की क्रिया से आयी हैं तो दर्शनावरण का स्वभाव, सुख, दुख में बाधा डालने की क्रिया से आयी हैं तो माता, असाता वेदनीय का स्वाभाव पड़ेगा। इसी प्रकार आगेआगे भी कर्मों के सम्बन्ध में समझना चाहिये। आत्मा के प्रदेशों के साथ कार्माण वर्गणाओं का मिलना अर्थात् एकक्षेत्रावगाही होना प्रदेशबन्ध है। स्वभाव पड़ जाने पर अमुक समय तक वह मात्मा के साथ रहेगा, इस प्रकार का काल मर्यादा का बनना स्थितिबन्ध है। फल देने की शक्ति का पड़ना अनुभागबन्ध है।
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