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रत्नाकर शतक
अवती सम्यग्दृष्टि श्रावक आत्मविश्वास के उत्पन्न हो जाने पर भी असंयम, कषाय, प्रमाद, योग के कारण कर्मों का अशुभ
आस्रव मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा कुछ कम करता है। व्रती जीव प्रमाद और कषायों के रहने पर अवती की अपेक्षा इम अशुभ अास्तव करता है। आत्मा के शान्त और निर्विकारी स्वरूप को अशान्त और विकारी क्रोध, मान, माया, एवं लोभ कपायें हो बनाती है। कषाय से युक्त पानव संसार का कारण होता है। प्रमाद एवं कषायों के दूर हो जाने पर योग के निमित्त से हानेवाला आस्रव
और भी कम होता चला जाता है। अास्रव --कर्मों के आने को दुःख का कारण बताया है।
बन्ध-दो पदार्थों के मिलने या विशिष्ट सम्बद्ध होने को बन्ध कहते हैं। बन्ध दो प्रकार का होता है-भावबन्ध और द्रव्यबन्ध । जिन राग-द्वेष आदि विभावों से कर्म-वर्गणाओं का बन्ध होता है, उन्हें भाव बन्ध और जो कर्म वर्गणाएँ आत्म प्रदेशों के साथ मिलती हैं, उन्हें द्रव्यबन्ध कहते हैं । कर्म-वर्गणाओं के मिलने से आत्मा के परिणमन में विलक्षणता आ जाती है तथा आत्मा के संयोग से कर्म स्कन्धों का कार्य भी विलक्षण हो जाता है। कर्म आत्मा से मिल जाते हैं, पर उनका तादात्म्य सबन्ध नहीं होता। दोनों-जीव और पुद्गल का स्वभाव भिन्न
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