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रत्नाकर शतक
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नहीं चलाता। यह अमूर्तिक द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है यद्यपि चलने की शक्ति द्रव्यों में वर्तमान है, पर बिना धर्म द्रव्य की सहायता के गमन क्रिया नहीं हो सकती है।
अधर्म द्रव्य- इसका अर्थ भी पाप नहीं है. किन्तु यह भी एक स्वतन्त्र अमूर्तिक द्रव्य है। यह ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है। यह भी प्रेरणा कर किसी को नहीं ठहराता, पर ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को सहायता देता है। इसकी सहायता के बिना जीव, पुद्गलों की स्थिति नहीं हो सकती है। बलपूर्वक प्रेरणा कर यह किसीको नहीं ठहराता है, इसका अस्तित्व समस्त लोक में वर्तमान है।
आकाश द्रव्य--जो सभी द्रव्यों को अवकाश देता है, उसे आकाश कहते हैं। यह अमूर्तिक और सर्व व्यापी है। आकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । सर्वव्यापी आकाश के बीच में लोकाकाश है, यह अकृत्रिम, अनादि-निधन है
और इसके चारों ओर सर्वव्यापी अलोकाकाश है। लोकाकाश में छहों द्रव्य पाये जाते हैं और अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। आकाश के इस विभाजन का कारण धर्म और अधर्म द्रव्य हैं। इन दोनों के कारण ही जीव और पुद्गल लोकाकाश की मर्यादा से बाहर नहीं जाते।
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