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रत्नाकर शतक
' सम्यग्ज्ञान-नय और प्रमाणों द्वारा जीवादि पदार्थों को यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान' है। दृढ़ आत्म विश्वास के अनन्तर ज्ञान में सम्यकपना आता है। यों तो संसार के पदार्थों को कम या अधिक रूप में प्रत्येक व्यक्ति जानता है, पर उस ज्ञान का यथार्थ में आत्मविकास के लिये उपयोग कम ही व्यक्ति करते हैं। सम्यग्दर्शन के पश्चात् उत्पन्न हुआ ज्ञान आत्मविकास का कारण अवश्य होता है। स्व और पर का भेदविज्ञान ही वस्तुतः सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यग्ज्ञान की बड़ी भारी महिमा बतायी गयी है।
ज्ञान समान न आन जगत में सुखको कारन । इह परमामृत जन्म-जरा-मृत्यु रोग-निवारन । कोटि जन्म तप तपे, ज्ञान बिन कम झरै जे । ज्ञानी के छिन माहि, त्रिगप्ति तैं सहज ट ते ।। मनिब्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो । पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो ।
~छहढाला आ० ४ प० २-३ १-नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम् ।
-रा० वा० अ० १सू० १ येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्थाव्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् ।
--स० सि० अ० १ सू०
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