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रत्नाकर शतक
क्षायोपशमिक सम्यत्त्व-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व इन छः प्रकृतियों में किन्हीं के उपशम और किन्हीं के क्षय से तथा सम्यत्त्व प्रकृति के उदय से जो आत्मरुचि उत्पन्न होती है उसे क्षायोपशमिक सम्यत्त्व कहते हैं।
आत्मा को शुद्ध चैतन्य स्वरूप, ज्ञाता, द्रष्टा समझना तथा अपने को समस्त संसार के पदार्थों से भिन्न समझ कर वैसा श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। संसार के पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, आत्मा का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं और न उनका आत्मा से कोई सम्बन्ध है; क्योकि वे पर हैं। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य के अतिरिक्त अन्य पदार्थ जिनका प्रतिक्षण अनुभव होता है, वे
आत्मा से सर्वथा जुदे हैं। स्त्री, पुत्र, मित्र, धन वैभव एवं ऐश्वर्य आदि पर पदार्थों में जो अपनत्व की प्रतीति हो रही है, वह मिथ्या है। जब तक प्राणी इन पर पदार्थों को अपना समझत १-अनन्तानुबंधीकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वयोश्चोदयक्षया सदुपशमाञ्च सम्यक्त्वस्य देशवातिस्पर्द्धकस्योदये तत्वार्थश्रद्धानं भायो. पसमिकं सम्यक्त्वम् ॥-स० सि० पृ०१२ तासामेव केसांचिदुपशमात् अन्यासांच क्षयादुपजातं श्रद्धानं क्षायोपशमिर्क
-विजयोदया ११ २-परदव्यनः भिन्न भाप में रुचि सम्यक भला है।
-बहलामा ३ १०२
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