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विस्तृत विवेचन सहित
सकता है कि कषाय और विकारों के दवा देने पर जो आत्मा में निर्मलता या विमल रुचि उत्पन्न होती है, वह उपशम सम्यत्त्व है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि विकार दवा देने से अधिक समय तक या चिर काल तक दबे नही रहते; कालान्तर में पुनः उबुद्ध हो जाते हैं, जिससे आत्मा की निर्मलता मलिनता के रूप में बदल जाती है।
क्षायिकसम्यत्त्व :--अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व तथा सम्यत्त्व इन सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जो निर्मल तत्त्व प्रतीति होती है, उसे क्षायिक सम्यत्त्व कहते हैं। अभिप्राय यह कि प्रमुख विकारों के दूर करने पर जो निर्मल आत्मा की रुचि होती है, उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा गया है। यह सम्यग्दर्शन या आत्म-विश्वास प्रमुख विकारों के नाश से उत्पन्न होता है, इसलिये आत्म-साधन का बड़ा भारी कारण है। इसके उत्पन्न होते ही प्राणी कंचन और कामिनी की रुचि से दूर हट जाता है।
१-तत्रकषायवेदनीयस्य भेदा अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः दर्शक मोहस्य त्रयो भेदाः सम्यक्त्वं, सम्यमिथ्यात्वमिति, आसां सप्तानां प्रकृतिमा अत्यन्तक्षयाक्षायिकं सम्यक्त्वम् ।
-स० सि० पृ०९
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