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रत्नाकर शतक
कुछ दिन इधर-उधर रहा होगा। पश्चात् पुनः जैन होने पर हुम्बुच्च गद्दी के स्वामी महेन्द्र कीर्ति या देवेन्द्रकीर्ति से उसने दीक्षा ली होगी। जैनधर्म से विरत होकर शैवदीक्षा लेने पर इसने सोमेश्वर शतक की रचना की है। इस शतक में समस्त सिद्धान्त जैनधर्म के हैं, केवल अन्त में 'हरहरा सोमेश्वरा' जोड़ दिया है। नमूने के लिये देखिये
वर सम्यत्त्वसुधर्मजैनमतदोळतां पुट्टियादीक्षेयं । धरिसीसन्नुतकाव्यशास्त्रगळनु निर्माणमं माडुतं ।। वररत्नाकर योगियेंदु निरुत वैराग्य बंदेरलां । हरदीक्षात्रतनादेनै हरहरा श्रीचन्न सोमेश्वरा ॥
इससे स्पष्ट है कि कवि ने अपने जीवन में एक बार शैव दीक्षा ली थी, पर जैनधर्म का महत्व उसके हृदय में बना रहा था, इसी कारण अन्त समय में उसे पुनः जैन बनने में विलम्ब नहीं हुआ।
प्रस्तुत सम्पादन इस ग्रन्थ का सम्पादन श्री शान्तिराज शास्त्री द्वारा सम्पादित रत्नाकर शतक के आधार पर किया गया है। इसकी हस्तलिखित दो-तीन प्रतियाँ भी हमारे सामने रही हैं। इसके आध्यात्मिक विचारों ने हमें आकृष्ट किया, जिससे इसका हिन्दी अनुवाद और विस्तृत विवेचन लिखने का हमारा विचार हुआ। आरा में श्रीजैन
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