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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित १२१ मोह छोड़ कर अपनी आत्मा के स्वरूप में रमण करते हुए शरीर का त्याग करना समाधिमरण कहलाता है। यह वीरता पूर्वक मृत्यु से लड़ना है, अहिंसा का वास्तविक स्वरूप है। साधक जब अपनी मृत्यु को निकट आई हुई समझ लेता है तो वह संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर भोजन का त्याग कर देता है। वह संसार के सभी पदार्थों से अपनी तृष्णा, लोलुपता और मोह ममता को छोड़ कर आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्त होता है। अभिप्राय यह है कि अपनी आत्मा से परपदार्थों को भले प्रकार त्यागना संन्यास मरण है। ____ इस सल्लेखना या समाधि मरण में आत्म-घात का दोष नहीं आता है, क्योंकि कषाय के आवेश में आकर अपने को मारना आत्म-घात है। यह शरीर धर्म साधन के लिये है, जब तक इससे यह कार्य सम्पन्न हो सके तब तक योग्य आहार-विहार आदि के द्वारा इसे स्वस्थ रखना चाहिये। जब कोई ऐसा रोग हो जाय जिससे उपचार करने पर भी इस शरीर की रक्षा न हो सके तो समाधिमरण ग्रहण कर लेना चाहिये। किसी असाध्य रोग के हो जाने र इस शरीर को धर्म साधन में बाधक समझ कर अपकारी नौकर के समान निर्ममत्व हो सावधानो से छोड़ना चहिये। यह शरीर तो नष्ट होने पर फिर भी मिल जायगा. पर For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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