________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११६
रत्नाकर शतक
को ऐसे ही खो देता है। मनुष्य जन्म लेते समय खाली हाथ आता है और मरते समय भी खाली हाथ ही जाता है, अतः इस धन में मोह क्यों ?
दान करने के पश्चात् धनकी द्वितीय स्थिति भोग है। जो धनार्जन करता है, उसे उस धन का सम्यक् प्रकार उपभोग भी करना चाहिये। धन का दुरुपयोग करना बुरा है, उपयोग अपने कुटम्ब तथा अन्य मित्र, स्नेही आदि के भरण-पोषण में करना गृहस्थ के लिये आवश्यक है । दान और भोग के पश्चात् यदि धन शेष रहे तो व्यावहारिक उपयोग के लिये उसका संग्रह करना चाहिये। जिस धन से दान और उपभोग नहीं किया जाता है वह धन शीघ्र नष्ट हो जाता है। धनार्जन के लिये भी अहिंसक साधनों का ही प्रयोग करना चाहिये। चोरी, बेईमानी, ठगी, धूर्तता, अधिक मुनाफा खोरी, आदि साधनों से धनार्जन कदापि नहीं करना चाहिये।
आजीविका अर्जन करने में गृहस्थ को दिन रात प्रारम्भ करना पड़ता है, अतः वह दान द्वारा अपने इस पाप को हल्का कर पुण्य बन्ध कर सकता है। दान चार प्रकार का है-आहार दान,
औषध दान, अभयदान और ज्ञानदान । सुपात्र को भोजन देना या गरीब, अनाथों को भोजन देना आहारदान है। रोगी व्यक्तियों
For Private And Personal Use Only