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विस्तृत विवेचन सहित
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प्रबल है, इसी के कारण अन्य विकारों को उत्पत्ति होता है तथा अविवेकी व्यवहारी अपने को इन विकारों से युक्त समझते हैं। ___ नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थों के स्वरूपा को अवगत कर
आत्म-द्रव्य की सत्ता सबसे भिन्न, स्वतन्त्र रूपमें समझना चाहिये। व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के कर्म प्रारम्भिक साधक के लिये करणीय है, तभी वह शरीर के मोह से निवृत्त हो सकता है।
उंवटं मिगिलागे येरुव हयं वेच्चल्के नीर्मगिनोलतुंबल्पोगुते मुग्गियुमरणमक्कु जीवको देहवे ॥ ष्टं वाळदष्टदु लाभवी किडुव मेय्यं कोट्टु नित्यत्ववा
दिवं धमदे कोंववं चदुरनै ! रत्नाकराधीश्वरा ॥१४॥ हे रसकराधोश्वर!
भोजन अधिक करने से, घोड़े पर बैठकर चलते समय ठोकर लगने से, नाक में पानी जाने से, जाते समय ठोकर लगने से यह जीव अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है। अत: जीवात्मा ऐसे अनिश्चित शरीर से जितना काम लेगा उतनाही अच्छा समझा जायगा; अर्थात् जो व्यक्ति इस नाशवान शरीर को देखकर शाश्वत भाव को प्राप्त होता है वही चतुर है क्योंकि पद पद पर इस शरीर के लिए मृत्यु का भय है। अतः इस क्षणभंगुर शरीर को प्राप्त कर प्रत्येक व्यक्ति को प्रारमकल्याण की भोर प्रवृत होना चाहिये ॥ १४ ॥
विवेचन----मनुष्य गति में अकाल मरण बताया गया है। देव, नारकी और भोगभूमि के जीवों का अकाल मरण नहीं होता है,
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