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रत्नाकर शतक
कर्मजन्य संसार की अनेक अवस्थाओं को यह आत्मा अकेला ही भोगता है, इसका दूसरा कोई साथी नहीं; इस प्रकार बार-बार सोचना एकत्व भावना है।
__ अन्यत्वभावना-यह आत्मा परपदार्थों को अपना मान कर ससार में भ्रमण करता है जब उन्हें अपने से भिन्न समझ अपने चैतन्य भाव में लीन हो जाता है तो इसे मुक्ति मिल जाती है। अभिप्राय यह है कि इस लोक में समस्त द्रव्य अपनी अपनी सत्ता को लिये भिन्न भिन्न हैं। कोई किसी में मिलता नहीं है किन्तु परस्पर में निमित्त नैमित्तिक भाव से कुछ कार्य होता है, उसके भ्रम से यह जीव परपदार्थों में अहंभाव और ममत्व करता है। जब इस जीव को अपने स्वरूप के पृथक्त्व का प्रतिभास हो जाता है तो अहंकार भाव निकल जाता है। अतः बार बार समस्त द्रव्यों से अपने को भिन्न भिन्न चिन्तवन करना अन्यत्व भावना है।
अशुचि भावना----यह शरीर अपवित्र है, मल-मूत्र की खान है, रोगों का घर है, वृद्धावस्था जन्य कष्ट भी इसे होता है, मैं इससे भिन्न हूँ, इस प्रकार चिन्तवन करना अशुचि भावना है। आत्मा निर्मल है यह सर्वदा कर्ममल से रहित हैं, परन्तु अशुद्ध अवस्था के कारण कर्मों के निमित्त से शरीर का सम्बन्ध होता है। यह शरीर अपवित्रता का घर है, इस प्रकार बार बार सोचना
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