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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७० www.kobatirth.org रत्नाकर शतक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनुष्य भव में पञ्चेन्द्रिय शरीर बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है । इस शरीर को प्राप्त कर आत्म-कल्याण करना चाहिये । इस पौद्गलिक शरीर का संचालक चैतन्य आत्मा ही है जब तक इसके साथ आत्मा का संयोग है, तब तक यह नाना प्रकार के कार्य करता है । आत्मा के अलग होते ही इस शरीर की संज्ञा मुर्दा हो जाती है। शरीर के भीतर रहने पर भी आत्मा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, उसका ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव सदा वर्तमान रहता है । परमात्म प्रकाश में बताया है कि यह जीव शुद्ध निश्चय की अपेक्षा से सदा चिदानन्द स्वभाव है, पर व्यवहार नय की अपेक्षा से बीतराग-निर्विकल्प स्वसंवेदन- ज्ञान के अभाव के कारण रागादिरूप परिणमन करने से शुभाशुभ कर्मों का आसव कर पुण्यवान् और पापी होता है । यद्यपि व्यवहार नय से यह पुण्य पाप रूप है, पर परमात्मा की अनुभूति से बाह्य पदार्थों की इच्छा को रोक देने के कारण उपादेय रूप परमात्मपद को पुरुषार्थ द्वारा यह प्राप्त कर लेता है । संसारी जीव शुद्धात्मज्ञान के अभाव से उपार्जित ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों के कारण नर नरकादि पर्यायों में उत्पन्न होता है, free है और आप ही शुद्ध ज्ञान से रहित होकर कर्मों को बांधता For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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