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रत्नाकर शतक
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मनुष्य भव में पञ्चेन्द्रिय शरीर बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है । इस शरीर को प्राप्त कर आत्म-कल्याण करना चाहिये । इस पौद्गलिक शरीर का संचालक चैतन्य आत्मा ही है जब तक इसके साथ आत्मा का संयोग है, तब तक यह नाना प्रकार के कार्य करता है । आत्मा के अलग होते ही इस शरीर की संज्ञा मुर्दा हो जाती है।
शरीर के भीतर रहने पर भी आत्मा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, उसका ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव सदा वर्तमान रहता है । परमात्म प्रकाश में बताया है कि यह जीव शुद्ध निश्चय की अपेक्षा से सदा चिदानन्द स्वभाव है, पर व्यवहार नय की अपेक्षा से बीतराग-निर्विकल्प स्वसंवेदन- ज्ञान के अभाव के कारण रागादिरूप परिणमन करने से शुभाशुभ कर्मों का आसव कर पुण्यवान् और पापी होता है । यद्यपि व्यवहार नय से यह पुण्य पाप रूप है, पर परमात्मा की अनुभूति से बाह्य पदार्थों की इच्छा को रोक देने के कारण उपादेय रूप परमात्मपद को पुरुषार्थ द्वारा यह प्राप्त कर लेता है ।
संसारी जीव शुद्धात्मज्ञान के अभाव से उपार्जित ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों के कारण नर नरकादि पर्यायों में उत्पन्न होता है, free है और आप ही शुद्ध ज्ञान से रहित होकर कर्मों को बांधता
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