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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवेशक. दासगण आवे तो दुःख आपेछे, उदासीन गण आवे तो कर्यु कार्य अफल थायछे, अने शत्रुगण आवे तो दुःख देवरावे. शत्रुगणनी पाछळ मित्रगण आवे तो शून्य फल मळे, दास गण आवे तो प्रियनो नाश थाय, उदासीन मण आवे तो शंका उत्पन्न करावे, अने शत्रुगण आवे तो नाश करावे. म्लेच्छादि अन्त्यजवर्ण विषेनी कविताना आरंभमा रगण, सगण, तगण अने जगण लेवा; द्विजनी कवितामां नगण अने सगण सिवायना गण वापरवा; वैश्य विषेनी कवितामां भगण अने सगण वर्ण्य छ; अने स्त्री विषेनी कविताना प्रारंभमां यमण अने मगण वयं छे, एम केटलाक केहेछे. दग्धाक्षरोनी पेठे आ दोष मात्र लौकिक छंदाने लागु-पड़ेछ; वैदिक छंदमां ए बाधकता नथी गणातो. तेमज मंगळवाचकशब्द अथवा देववाचकशब्दमां पण ए मणनो प्रयोग बानकारक नथी. वळी आरंभ गण शुभ फलदाता मूकवामां आव्यो होय तो तेना पछीना गण- मित्र अमित्रपणुं जोवातुं नथी. केटलाक आर्याना गणोनुं प्रथक फळ वर्णवेछे ते पूर्व जणाव्या सदृश छे, एटले अमे ते अत्र जूदं जणाव्युं नथी. संख्या विषे. छंदमां एकादि संख्या जणाववा माटे इष्ट संख्यातुल्य जेनो अर्थ थतो होय अथवा जेनी संख्या इष्ट संख्या तुल्य ज होय तेवा शब्दो, कविताना मापमां मळता आवे तेवा ते संख्या माटे मूकवा प्रथा छे, तेथी ते सूचवनार शब्दोनो संग्रह आ नीचे आपिये छिये तथी स्पष्ट समजाशे. For Private And Personal Use Only
SR No.020597
Book TitleRanpingal Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRanchodbhai Udayram
PublisherKutchh Darbari Mudrayantra
Publication Year1902
Total Pages723
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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