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पाठकों से
प्रस्तुत " पुण्यसारकथानक " नामक अन्ध में सार्मिक वात्सल्य का माहात्म्य उत्तम शैली से वर्णित है, इस प्रन्थ के प्रणेता वाचनाचार्य श्री १००८ विवेकसमुद्रजीगणि है, और आपने प्रकृत प्रन्थ वि० सं० १३३४ में निर्माण किया। आपको बहुमुखी प्रतिभा को हम क्या कहें ! इस लेखिनी में आपको प्रकाण्ड विद्वत्ता बतलाने की शक्ति कहां ? यहां तो मात्र इतना लिखना ही पर्याप्त होगा, कि आप खरतरगच्छालंकार दादा | साहेब श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी के विद्यागुरु थे, जैसा कि उनकी चैत्यवंदन कुलकवृत्ति ५१३४ से ज्ञात होता है, यही उनकी उत्तम विद्वत्ता का प्रमाण है।
जैसलमेर के पुरातन ज्ञानभंडार से इतिहास ही श्री अगरचंदजी नाहटा प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिकृति लाये थे वह एक ही प्रति से प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधित कर प्रकाशित हो रहा है। संशोधन परमपूज्य गुरुवर्य उपाध्याय श्री श्री श्री १००८ सुखसागरजी महाराज साहेब एवं जेठालालभाई शास्त्रीने बहूत सावधानीपूर्वक किया है । तथापि स्खलना पाठक सुधारें।
अन्य प्रकाशन कार्य महासमुंदनिवासी श्रीयुत मेघराजजी श्रीश्रीमालजी की धर्मपरायण धर्मपत्नी अ. सौ. श्रीमती वसतिबाई के तपाराधन के उद्यापन के उपलक्ष में दी हुई आर्थिक सहायता से हो रहा है।
हम चाहेंगे कि सजनगण वांचन श्रवण कर ज्ञान वृद्धि कर के आत्मकल्याण करें । महासमुंद विजयादशमी
मुनि मंगलसागर सं० २००१
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