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प्रकार की है पुद्गल रमणता की प्रवृत्ति वाली अपनी आत्मा अनादिकाल से पुद्गल के साथ पुद्गल में खेलते-खेलते ऐसे तो पुद्गलमय हो गयी है कि जरा भी पहचान में नहीं आती। जनम-जनम से देहादि रूप में जकड़े हुए पुद्गल में मैं पने की बुद्धि है, अंत में मृत्यु के समय जब उन्हें छोड़ना होता है तब ऐसा लगता है कि यह तो मैं नहीं थी। फिर दूसरे और तीसरे सभी भवों में मैं पने की ही बुद्धि होती है फिर वही निराशा।
___भगवान महावीर के सान्निध्य में स्थित श्रेणिक महाराजा ने देखा, दूर एक मैदान में एक आदमी बार-बार आकाश में उड़ता है और तुरन्त जमीन पर पटक/गिर जाता है। फिर खड़ा होकर उड़ता है, तुरन्त गिर जाता है। श्रेणिक महाराजा ने इसका कारण पूछा, कि भगवन् वह आदमी जरा सा उड़ कर बार-बार नीचे क्यों गिर जाता है? भगवान ने कहा, श्रेणिक! वह विद्याधर है। परन्तु अपनी विद्या का एक शब्द भूल गया है। उस कारण से विद्या पढ़कर/ बोलकर आकाश में थोड़ा उडता है, परन्तु भूला हुआ शब्द याद नहीं आने से विद्या खंडित होने से फिर जमीन पर आ गिरता है। यह सुनकर बुद्धिनिधान अभयकुमार उस विद्याधर के पास गए। विद्याधर से कहा, अगर तुम मुझे अपनी आकाशगामिनी विद्या सुनाओं, तो उसमें तुम जो शब्द भूल गये हो, वह बता दूँ। विद्याधर आकाशगामिनी विद्या के सारे पद बोल गया। एक पद छूट जाता था... अभय कुमार ने पदानुसारी लब्धि से तुरन्त वह पद बताया। उस पद को बोलते ही विद्याधर आकाश मार्ग में उड़ने लगा। अनंतकाल से अपनी भी विद्याधर जैसी ही स्थिति है। हम सिर्फ "आत्मा' इस पद को या इस पद के स्वरूप को ही भूल गए है। ओर तो सब जानते हैं, समझते हैं तभी तो बार-बार देवगति रूप उर्ध्वगति करके फिर दुर्गति रूप जमीन पर पटक जाते है। अगर आत्मा की समझ (ज्ञान) आ जाय तो, हम तुरन्त शुभभावों और शुद्धगति के आकाश में उड़ने लग जाएं। आँखों पर पट्टी बांधकर नीयत व्यक्ति को पकड़ने का एक खेल खेला जाता है, पकड़ में न आये वहाँ तक घूमते/भटकते रहने का, ओर सभी चीजें पकड़कर आये। वह नहीं माना
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