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त्यक्ताव्या: कुविकल्पा:
"कुविकल्पों का त्याग करना" जीव तन से ज्यादा कर्म बांधता है या मन से? ज्ञानी पुरूष कहते है, जीव तन से भी ज्यादा मन से कर्मबंध करता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है प्रसन्नचन्द्र राजर्षि । मन के विचार, ये तो साँप, सीढ़ी के खेल के समान है। कुविककल्प के साप के साथ जाकर रूक जाये तो सातवीं नरक तक पहुंचा सकते है। और सुविकल्प/सुविचार की सीढ़ी के पास पहुँचकर ठहर जाये तो मोक्ष में भी पहुंचा सकते है। अनंतकालीन संस्कार ऐसे घर कर गये कि जिस कारण से शुभविचार से भी कुविचार में मन को ज्यादा मजा आता है। स्वयंभूरमण समुद्र में जन्मा हुआ, एक हजार योजन शरीर की लम्बाई वाला, एक करोड़ पूर्व आयुष्यवाला, असंज्ञी (मन बिना का) मत्स्य अपनी जिन्दगी में लाखों, करोड़ो, अबजो मछलियाँ खाने पर भी मर कर पहली नरक में ही जाता है, जबकि उसी मछली की आंख की भौंह में जन्मा हुआ, अतर्मुहूर्त के आयुष्यवाला, चावल के दाने जितने शरीर वाला गर्भज मत्स्य मर कर सातवीं नरक में जाता है। इसका कारण क्या? इसका कारण गर्भज मत्स्य के मन में चलने वाले क्रूर विचारों मन बिना की बड़ी मछली के पेट में गई हुई हजारों मछलियों में से कितनीक मछलियाँ जब जिन्दा ही बाहर आती है, तब यह गर्भज मत्स्य सोचता है ...... यह भी कितना मूर्ख है, अगर इसकी जगह पर मैं होंऊं तो एक को भी जाने नहीं दूं।
अपनी जिन्दगी में एक भी मछली नहीं मारने पर भी मन के अशुभ विचार/ कुविकल्प उसे दुर्गति में धकेल देते है। हम भी अपनी जिन्दगी में कितनी ही बार ऐसे क्रूर विचारों में चले जाते हैं। फलां की जगह पर अगर मैंने व्यापार संभाला होता तो लाखों रूपये बना लेता। अमूक की जगह पर मैं होता तो उस दिन मैं उसे मार ही डालता । फलां की जगह पर मैंने रसोड़ा संभाला होता तो लोग रसोई का बखान करके थक जाते। पाप नहीं करने पर भी
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