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नहीं पर हितकर है। शरीर की दृष्टि से कड़वी दवा और आत्म दृष्टि से उपवास-आयंबिलादि और (4) कितनीक प्रवृत्तियाँ सुखकर भी है और दुःखकर भी, जैसे दुनियादारी की अशांति में शांतिदायक सामायिक और टेन्सनमुक्त मन को प्रसन्न करने वाली पूजा । अगर हमें दमन-शमन और विसर्जन अच्छा लगता हो तो यह प्रवृत्ति तुरन्त अपनायी जानी चाहिए। इस चतुर्भगी में आत्मा के लिए वर्तमान और भविष्य में भी सुखकर और हितकर हो उन्हें अपनाना चाहिए। दूसरों को बहुत दबाया। बाप बनकर बेटे को दबाया। पति, बेटा और पुत्र वधु बनकर अंत में अपने ही माँ-बाप को दबाया। जमाई बनकर सास ससुर को दबाया, बहु बनकर सासु को दबाया
और सासु बनकर बहु को दबाया । परमात्मा कहते हैं उस दमन से भवभ्रमण नहीं मिटा। भवभ्रमण से मुक्त बनने के लिए आत्मदमन करो।
वरं मे अप्पादंतो, संजमेण तवेणय।
माहं परेहि दम्मन्तो, बंधणेहिं वहेहिय।। दूसरों का दमन-शमन किया, अब आत्मदमन भी करो। जो आत्मा का संयम और तप से दमन करता है उसे दुर्गति के वध-बंधन से निग्रहित नहीं होना पड़ता। पराधीनता वश कई बार चारोंगति में दमन हुआ पर स्वाधीनता से दमन हो तो सकाम निर्जरा होती है। दमन अर्थात् पाँच इन्द्रियों और मन रूपि घोड़ा जो चारों तरफ इच्छानुसार दौड रहे हैं उन्हें संतोषरूपी लगाम से रोकना उसे ही कहते है दमन । शमन का अर्थ है: कषायरूपी आग को क्षमारूपी जल से शांत करना उसका नाम शमन। कभी निमित्त से तो कभी निमित्त बिना भी हम कषाय के आवेग से घिर जाते हैं। क्या हम इनका दमन नहीं कर सकते? मेतारज मुनिवर ने सोनी के उपसर्ग के समय क्रोध का दमन किया था। शालीभद्रजी और चंपाश्राविका ने मान का दमन किया था। कपिलमुनि और पुणियाश्रावक ने लोभ का दमन किया था। विजय शेठ और विजया शेठाणी ने काम का दमन किया था। एक गाँव में एक गाड़ी में बैठकर चार पाँच युवान आये और गाँव में
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