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वैराग्यम
"वैराग्यभाव धारण करना" अध्यात्मसार ग्रंथ के सातवें अधिकर में वैराग्य के दो प्रकारों का बहुत ही अच्छा विश्लेषण है। (1) विषय वैराग्य और (2) गुण वैराग्य । विषय वैराग्य अर्थात् पाँच इन्द्रियों के सानुकूल विषयों में सतत विरक्ति! जिस योगी पुरूष का मन आत्मानंद स्वरूप में मस्त बना हो, उसे पाँच इन्द्रियों के भौतिक विषयों में जरा भी आशक्ति या आकर्षण नहीं होता है। जो आत्मा अध्यात्म के अमृत के कुंड में स्नान करती है। उसे विष का कुंड पीड़ित नहीं कर पाता, उसी तरह योगी पुरूषों का मन अनुकूल विषयों को प्राप्त कर तनिक भी चंचल नहीं बनता है। जिन योगी पुरूषों का मन शांत और अनाहत-नाद के श्रवण में लग चूका हो, ऐसे विरक्त पुरूषों को मधुर कंठी स्त्री के मादक/मधुर गान के श्रवण में जरा भी आकर्षण नहीं होता। शुद्ध स्फटिक की तरह आत्मा का शुद्ध स्वरूप अत्यंत ही धवल है, ऐसे धवल आत्मस्वरूप को निहारने वाले योगी पुरूषों को रज-वीर्य और रूधिर से पैदा हुइ स्त्री आदि के देह दर्शन में किसी तरह का आकर्षण नहीं होता। आंखों से दिखाई देने वाला रूप तो नाशवान है, क्योंकि पुद्गलों से निर्मित बाह्य रूप/शरीर में बदलाव होता रहता है। आज शरीर की जो खुबसूरती दिख रही है, कल भी खुबसूरती वैसी ही रहेगी, यह संभव नहीं है। जवानी के कारण जिस स्त्री के रूप में आकर्षण होता है, वहीं स्त्री जब वृद्ध हो जाती है, तब वही रूप कुरूप और बिभत्स बन जाता है, फिर उसके रूप में किसी तरह का आकर्षण नहीं रहता है, न दिलचस्पी रहती है। विरक्त आत्मा का मन कस्तुरी, मालती के फूल, गुलाब व मोगरे के पुष्प, चंदन, केशर कपूरादि की महक में मूग्ध नही बनता है, क्योंकि विरक्त आत्माओं का मन तो शील की महक के आस्वाद में ही डूबा होता है। अध्यात्म की महक के रसपान का भ्रमर बने विरक्त पुरूष को क्षणिक और परिवर्तनशील भौतिक पदार्थों की बाहरी सुवास का कोई आकर्षण नहीं रहता है। विरक्त आत्मा को स्वादिष्ट व मधुर
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