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श्री यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे
॥१५॥
पाएण होइ एयं रयणीभोयणघयस्स जं तेसिं। आगाराण बहुत्तं इमंच संखित्तआगारं॥१६५॥ जइ पुण निसिभत्त- देशावकावयं दुक्कालभयाइकारणेहि विणा । गिहिणावि हु पडिवन्नं चउबिहाहारविसयं च ॥ १६६ ॥ तो तस्सवि देव- शिकमभिसियं एयं संभवइ तो दिणे सेसे । थोए वा बहुए वा कायव्वं न उण रयणीए ॥ १६७।-भणियं चरममियाणि
ग्रहाश्च आभिग्गहियं भणामि लेसेण । तत्थागारा चउरो अहवावि हवंति पञ्चेव ।। १६८।। देसावगासिगाइसु दंडगगहणाइगोयरेसुं च । अंगुट्टमुट्ठिमाइसु नियमेसु हवंति चत्तारि ॥ १६९ ॥ अप्पाउरणे पंच उ तं पुण सीयाइसहणबुद्धीए । कोइ पवज्जइ पुरिसो मोत्तुं सव्वंपि पाउरणं ॥ १७ ॥ सो सागरियभएणं चोलगपदृस्स परिहणनिमित्तं । चोलगपट्टागारं करेइ तेणेह ते पंच ॥ १७१ ॥
सूत्राणि च,-देसावगासियं उवभोगपरिभोगं (द्रव्य सचित्त०) प० अन्नत्थणाभोगणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ॥ एवं डंडगगहणअंगुट्टमुट्टिगंठीघरसेउस्सास(जोइ)थिबुगाइसुवि चत्तारि आगारा दट्टव्वा। अप्पाउरणं पच्चक्खाह अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं चोलपगागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह॥
भणियं आभिग्गहियं निव्वीयं संपयं पवक्खामि | विगईचागाउ इमं ताओच्चिय ताव तो भणिमो। १७१।४ खीरं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुल मज्जं । महु मंसं चेव सहा ओगाहिमगं च दस विगई ॥ १७३ ॥ |
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