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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ मङ्गलाचरण न्यायकन्दली चेत्, वान्तमिदम्, स्वरूपपरस्यापि वाक्यस्य लोके प्रयोगदर्शनात् । यथा परिणामसुरसमानं परिणतिविरसञ्च पनसमिति । अत्रापि प्रवृत्तिनिवृत्त्योरुपदेशः, एवं हि वाक्यार्थः परिणामसुरसानं भक्षय, परिणतिविरसञ्च मा भक्षयेति । न, वैयर्थ्यात् । सुरसत्वप्रतीत्यैव स्वयमभिलाषात् पुरुषः प्रवर्त्तते, विरसत्वप्रतीत्यैव द्वेषानिवर्तते । का तत्र वस्तुसामर्थ्य भाविन्युपदेशापेक्षा, अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवद्भवति । अथ प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभिसन्धानेनास्य वाक्यस्य प्रयोगात् तादर्थ्यमिति चेत्, अस्ति प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थता, किन्तु जनकत्वान्न तु प्रतिपादकत्वेन । यस्माद् भूतार्थविषय एव प्रामाण्यम् । यदि तु प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभिसन्धानेन वाक्यप्रयोगात् तयोरप्रतीयमानयोरपि शाब्दता, आम्रभक्षणोत्तरकालीना तृप्तिर्धातुसाम्यञ्च (उ)किन्तु यह कथन भी सारशून्य है, क्योंकि 'स्वरूप' कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक वाक्य से भी लोक में अर्थ-बोध देखा जाता है। जैसे "परिणतिसुरसमाम्रम्, परिणतिविरसञ्च पनसम्” (आम परिणाम में सुखद है और कटहल परिणाम में दुःखद है) इत्यादि वाक्यों से अर्थ-बोध होता है । (प्र०) यहाँ पर भी प्रबृत्ति और निवृत्ति ही वक्ता के उन वाक्यों से अभीष्ट है । तदनुसार उन दोनों वाक्यों का अर्थ यह है कि “आम खाओ, क्योंकि वह परिणाम में दुख देनेवाला है, और कटहल मत खाओ, क्यों कि वह अन्त में दुःख देनेवाला है।" (उ०) नहीं,यह कल्पना ब्यर्थ है । वाक्यों को प्रवृत्त्यर्थक या निवृत्त्यर्थक न मानने पर भी आम में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को आम खाने में प्रवृत्त करेगा। एवं कटहल में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को कटहल खाने से निवृत्त करेगा। फिर वस्तुओं के सामर्थ्य से ही उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों एवं निवृत्तियों में उपदेश की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि और सभी प्रमाणों से अज्ञात वस्तु को समझाना ही शास्त्र (शब्द) का असाधारण प्रयोजन है। (प्र.) "लोग आम खाने में प्रवृत्त हों और कटहल खाने में नहीं" यह मन में रखकर ही वक्ता उन वाक्यों का प्रयोग करते हैं, अतः प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों उन वाक्यों के ही अर्थ हैं । (उ०) यह ठीक है कि उन वाक्यों से प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है किन्तु इससे केवल यही सिद्ध होता है कि वे वाक्य क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारण हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे दोनों उन दोनों वाक्यों के प्रतिपाद्य भी हैं। क्योंकि निष्पन्न अर्थों में ही शब्दों की शक्ति है। (अगर प्रवृत्ति और निवृत्ति के अभिप्राय से उन वाक्यों का प्रयोग किया गया है, केवल इसीलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति को उन वाक्यों का अर्थ मान लिया जाय तो) आम के खाने से जो तृप्ति होती है या शरीर का उपकार होता है, उनकी प्रतिपादकता भी उस वाक्य में माननी पड़ेगी । ( किसी प्रकार की में प्रमाण माना है, उसका भी वह निष्पन्न अर्थ नहीं है । उसका भी धाय॑त्वविशिष्ट - कोई दूसरा हो अर्थ है । जिससे कि आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होगी। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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