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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण न्यायकन्दली त्वात् । न च प्रत्यक्षागृहीतेऽर्थे सङ्केतग्रहणमस्तीत्यभावे शब्दस्याप्रवृत्तिरेव । न च तस्मिन् प्रतीयमाने श्रोतुरर्थविषया प्रवृत्तिः स्यात्, भावाभावयोरन्यत्वादसम्बन्धाच्च । स्वलक्षणात्मकत्वेनाभावप्रतीतावविवेकेन स्वलक्षणे प्रवृत्तिरिति चेत् ? 'दश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्यातत्सन्निवेशिभ्यो भ्रान्त्या प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तणाम् इति । तदयुक्तम् । अप्रतीते तदात्मकतया अभावसमारोपानुपपत्तेः । न च श्रोतुस्तदानीमर्थप्रतिपत्तिरस्ति शब्दस्यातद्विषयत्वात् प्रमाणान्तरस्याभावात् । अस्ति च शब्दादर्थे प्रवृत्तिस्तस्मानाभावोऽपि शब्दार्थः । न चान्यदेकं निमित्तं किञ्चिदस्ति । सर्वमिदमर्थजातं परस्परव्यावृत्तं प्रतिक्षणमपूर्वमपूर्वमनुभूयमानं न शब्दात् प्रतीयते । नापि प्रत्यक्षाप्रतीतमपि हानोपादानविषयो भवेत्, अपरिज्ञातसामर्थ्यत्वात् । अस्ति च शाब्दो व्यवहारः, अस्ति च प्राण से किसी भी भावार्थ में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि (घटादि ) भाव और उनमें रहनेवाला ( अपोह रूप ) अभाव दोनों भिन्न हैं। एवं परस्पर विरोधी होने से अपोह एवं घटादि पदार्थ दोनों का सम्बन्ध भी सम्भव नहीं है । (प्र०) घटादि की स्वलक्षणा प्रतीति और अपोह को प्रतीति दोनों में भेद बुद्धि न रहने के कारण ( अपोह के वाचक घटादि शब्दों से घटादिविषयक) प्रवृत्तियाँ होती हैं। जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि दृश्य अर्थ और समारोपित अर्थ जो वस्तुतः परस्पर सम्बद्ध नहीं हैं, उन दोनों को एक समझकर ही सुनने वाले की तद्विषयक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । ( उ० ) किन्तु यह कहना भी अयुक्त है । अज्ञात वस्तु ( भाव ) में अभिन्न रूप से अभाव ( अपोह) का आरोप भी नहीं किया जा सकता। उस समय (शब्द को सुनने के बाद) श्रोता को अर्थ का ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द प्रामाणिक ( गवादि ) अर्थों का बोधक प्रमाण नहीं है । एवं उस समय शब्द को छोड़ दूसरा प्रमाण उपस्थित भी नहीं है। किन्तु शब्द से (घटादि) अर्थों में प्रवृत्ति होती है । अतः ( घटादि शब्दों के घटत्वादि रूप से घटादि भाव ही अर्थ हैं, अपोह रूप से) अभाव नहीं । (घटत्वादि ) सामग्रियों को छोड़कर शब्दों का कोई एक ( प्रवृत्ति ) निमित्त नहीं है। यह कहना भी सम्भव नहीं है कि जितने भी अर्थ उत्पन्न होते हैं वे सभी परस्पर भिन्न हैं, और प्रतिक्षण नये नये ही उत्पन्न होते हैं, और उन्हीं अर्थों का शब्द से अनुभव होता है। एवं (सामान्य के न मानने पर) प्रत्यक्ष के द्वारा अज्ञात व्यक्तियों में प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होगी, (किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात व्यक्ति के सजातीय ) उन १. यहाँ मुद्रित पाठ को यथावत् मानना उचित नहीं जान पड़ता। अतः "दृश्यविकल्प्यो" इसके पहिले 'यथोक्तम्' इतना अधिक जोड़कर, एवं 'प्रतिपत्तिः' इसके स्थान में 'प्रवृत्तिः' ऐसा पाठ मानकर अनुवाद किया गया है। ये दोनों ही पाठभेद नीचे के पाठभेदों में भी मुद्रित हैं। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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