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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
१. यह
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वाsनेकार्थदर्शो कश्चिदेकस्तथाप्येकं निमित्तमन्तरेण भिन्नेष्वाकारेषु नाभेदग्रहणमस्ति । भवद्वा गवाश्वमहिषाद्याकारेष्वपि भवेदविशेषात् । गवाकारेष्वप्यगोव्यावृत्तिरेकं निमित्तमस्तीति चेत् ? के पुनरगावो यद्वद्यावृत्त्या गवाका रेष्वेकत्व - मारोप्यते ? ये गावो न भवन्ति तेऽगाव इति चेत् ? गावः के ? ते येऽगावो न भवन्तीति चेत् ? गवाश्वस्वरूपे निरूपिते तद्वयावृत्तत्वेनागवां स्वरूपं निरूप्यते, अगवां स्वरूपे निरूपिते तद्वद्यावृत्त्या गवां स्वरूपनिरूपणमित्येकाप्रतिपत्तावितराप्रतिपत्तेरुभयाप्रतिपत्तिः । यथाह तत्रभवान् -
'सिद्धश्च गौरपोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः ।
[ सामान्यनिरूपण
को क्रमशः समझ सकता है। किन्तु 'नैरात्म्यवाद' में अनेक वस्तुओं को देखनेवाला कोई एक पुरुष स्वीकृत नहीं है, क्योंकि विकल्प केवल अपने अपने आकार मात्र में पर्यवसित हैं। अनेक वस्तुओं के एक द्रष्टा को यदि स्वीकार भी कर लें, फिर भी अनेक वस्तुओं में अभेद की प्रतीति तब तक नहीं हो सकती, जब तक उन अनेक वस्तुओं में रहनेवाले किसी एक निमित्त को न मान लिया जाय। बिना एक किसी
प्रतीति मानें तो गो, महिष प्रभृति क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । ( गोभिन्नभिन्नत्व ) रूप एक धर्म के
पदार्थ को माने भी यदि उक्त अभेद को आकारों में भी उक्त एकत्व की प्रतीति होगी, ( प्र० ) गो के सभी आकारों में 'अगोव्यावृत्ति' रहने से सभी गोव्यक्तियों में एकत्व का आरोप होता है ? ( उ० ) 'अगो' शब्द से कौन सब वस्तुएँ अभिप्रेत हैं, जिनकी व्यावृत्ति के कारण सभी गो व्यक्तियों में एकत्व का आरोप करते हैं ? ( प्र० ) गायों से भिन्न जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे ही प्रकृति में 'अगो' शब्द से अभिप्रेत हैं ? ( उ० ) 'गो' कौन सी वस्तु है ? यदि यह कहें कि ( प्र० ) वे ही गो हैं, जो गोभिन्न वस्तुओं भिन्न है ? ( उ० ) तो फिर गो, अश्व प्रभृति वस्तुओं का स्वरूप जब ज्ञात होगा, तब तद्भिन्नत्व रूप से 'गो' के स्वरूप का निर्णय होगा । एवं 'अगो' के स्वरूप का जब निर्णय होगा, तब उनकी व्यावृत्ति से गो के स्वरूप का निर्णय होगा । इस प्रकार इस ( अपोहवाद के ) पक्ष में एक के बिना दूसरे की प्रतिपत्ति न होने के कारण फलतः 'गो' और 'अगो' दोनों का ज्ञान ही असम्भव होगा |
से
जैसा कि इस प्रसङ्ग में 'तत्रभवान्' कुमारिलभट्ट ने कहा है कि
( किसी प्रमाण के द्वारा ) सिद्ध 'अगो' से ही सभी गोव्यक्ति में व्यावृत्ति बुद्धि उत्पन्न हो सकती है । किन्तु 'अगो' वस्तुतः गो का निषेध रूप है । किन्तु यह निर्वचन करना पड़ेगा कि 'अगो' शब्द में प्रयुक्त 'नन्' के द्वारा जिसका निषेध किया जाता है, वह 'गो' पदार्थ क्या है ?
पद्य श्लोकवार्त्तिक का है। मुद्रित न्यायकन्दली में इसका पाठ
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