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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् J www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली १ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मश्वादिव्यावृत्तं किश्विदेकं रूपमाक्षिपति, एकार्थक्रियाकारित्वादेकहेतुत्वाच्च । गोव्यक्तीनामेकत्वमिति चेत् ? नासति सामान्ये व्यक्तीनामिव व्यक्तिहेतूनां व्यक्तिकार्याणामपि परस्परव्यावृत्तानामेकत्वात् २ । किश्व, यद्येकहेतुत्वादेकत्वम्, भिन्नकारणप्रभवाणां व्यक्तीनामेकत्वं न स्यात् । दृश्यते चाभिन्नस्वभावानामपि कारणभेदो यथा वह्नेर्दारुनिर्मथनाद् विद्युत आदित्यगभस्तिक्षोभितात् सूर्यकान्तादपि मणेरुत्पत्तिः । एककार्यत्वादेकत्वे च विजातीयाना ७५७ में रहनेवाले किसी एक धर्म की कल्पना आवश्यक हो जाती है । ( प्र० ) सभी व्यक्ति यतः एक ही प्रकार के कार्यों के सम्पादक हैं. एवं एक ही प्रकार की सामग्रियों से उत्पन्न होती हैं, अतः सभी गोव्यक्ति एक ही हैं ( इसी एकत्व के कारण एकाकार की प्रतीतियाँ होती हैं ) | ( उ० ) जिस प्रकार सामान्य के न रहने पर व्यक्तियों की एकता सम्भव नहीं है, उसी प्रकार व्यक्ति रूप कार्यों और व्यक्ति के कारणों की एकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यक्तियों की तरह उनके कार्य और उनके कारण भी तो परस्पर विभिन्न हैं, उनमें रहनेवाले सामान्यों के बिना उनमें भी एकत्व का सम्पादक कौन होगा ? दूसरी बात यह है कि यदि एक प्रकार की सामग्री से उत्पन्न होना ही सामग्री से एक प्रकार के व्यक्तियों में एकरूपता का कारण हो तो फिर भिन्न प्रकार की कार्य को उत्पत्ति न हो सकेगी, किन्तु सभी अग्नियों का एक प्रकार का स्वभाव होते हुए भी उनके कारण भिन्न भिन्न हैं, यतः कभी काष्ठों के मन्थन से कभी विद्युत् से और कभी सूर्य की किरणों से क्षुभित सूर्यकान्त मणि से वह्नि की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार यदि एक प्रकार के कार्यों के उत्पादक होने से ही व्यक्तियों में एकता मानी जाय तो कुछ विजातीय वस्तुओं में भी एकता माननी पड़ेगी, क्योंकि दोहन, वाहनादि क्रियायें समान रूप से गोप्रभृति व्यक्तियों से और महिषादि व्यक्तियों से भी उत्पन्न होती हैं । ( एवं एककार्यकारित्व को यदि एकता का प्रयोजक मानें तो फिर ) जिन गोव्यक्तियों से दोहन भारवाहनादि क्रियायें सम्पादित ही नहीं होतीं, उनमें १. मुद्रित पुस्तक में ' रूपमाक्षिपति' इस वाक्य के आगे पूर्ण विराम नहीं है। 'एकाथ क्रियाकारित्वादेकहेतुत्वाच्च' इस वाक्य के आगे पूर्ण विराम है, जिससे सङ्गति ठीक नहीं बैठती है । अतः 'रूपमाक्षिपति' इसी वाक्य के आगे पूर्णविराम देकर और आगे के वाक्य को पूर्वपक्षियों के साधक हेतुओं का बोधक मानकर अनुवाद किया गया है । For Private And Personal २. इस सन्दर्भ में 'परस्परव्यावृत्तानामेकत्वात्' यह मुद्रित पाठ उचित नहीं जान पड़ता, इसे प्रथमान्त होना चाहिए। आगे के 'भिन्नकारणप्रभवाणामेकत्वम्' इस प्रथमान्त पाठ से यह और स्पष्ट हो जाता है । अतः उक्त पाठ को प्रथमान्त मान कर ही अनुवाद किया गया है ।
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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