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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७५५ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली पिण्डे सम्भवति तस्य तत्रैव समवायो नान्यत्र । एवं सामग्रया नियमादपि सामान्यसम्बन्धनियमः। एष हि तन्त्वादीनां कारणानां स्वभावो यदेतैरुत्पद्यमाने द्रव्ये पटत्वमेव समवैति, नान्यत् । एष हि मृत्पिण्डादीनां महिमा यत् तैः क्रियमाणे द्रव्ये घटत्वमेव समवैति, नान्यत् । न तावत् सामान्यमन्यतो गत्वान्यत्र सम्बध्यते, निष्क्रियत्वात् । तत्रापि यदि पूर्व नासीत् ? तत्रोपजायमानेन पिण्डेनास्य सम्बन्धो न स्यात् । दृश्यते च सर्वत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धः, तस्मात् सर्व सर्वत्रास्तीति कस्यचिन्मतं तन्निराकुर्वन्नाह–अन्तराले संयोगसमवायवृत्त्यभावादव्यपदेश्यानीति । अन्तरालमिति आकाशं वा दिगद्रव्यं वा स्तिमितवेगमूर्तद्रव्याभावो वा, तेषु गोत्वादिसामान्यानां न संयोगो नापि समवायः । न चासम्बद्धानामेव तेषामवस्थाने प्रमाणमस्ति । अतोऽन्तराले न सामान्यानि व्यपदिश्यन्ते न सन्तीत्यर्थः । कथं तहि तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बध्यन्ते ? भी जिन किसी सम्बन्ध से सम्बद्ध हो सकते हैं। फिर भी जिस सामान्य का ज्ञापक जो संस्थान है, उस संस्थान से युक्त पिण्ड में ही उस सामान्य का समवाय है, अन्य पिण्डों में नहीं । इसी प्रकार आश्रयोभूत किसी व्यक्ति के उत्पादक कारणसमूह के नियमन से ही सामान्य के समवाय रूप सम्बन्ध का भी नियमन हो सकता है, जैसे कि (पट के उत्पादक ) तन्तु प्रभृति कारणों का ही यह स्वभाव है कि इनसे उत्पन्न द्रव्य में पटत्व समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध होता है, अन्य सामान्य नहीं । एवं मिट्टी प्रभृति कारणों की ही यह महिमा है कि इनसे उत्पन्न द्रव्य में घटत्व का ही समवाय हो, किसी दूसरे सामान्य का नहीं । 'सामान्य' यतः क्रिया रहित है. अतः एक जगह से दूसरी जगह जाकर अपने विषय के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकता। ( व्यक्ति की उत्पत्ति के देश में उसके रहने पर भी उस व्यक्ति के साथ सम्बन्ध के प्रसङ्ग में यह प्रश्न उठता है कि ) सामान्य यदि उस देश में पहिले से नहीं था, तो फिर इस समय उत्पन्न हुए अश्वादि के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता | किन्तु सभी देशों में उत्पन्न व्यक्तियों के साथ उसका सम्बन्ध होता है। तस्मात् यह मानना पड़ेगा कि सामान्य सभी स्थानों में है। किसी सम्प्रदाय के इसी सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए अन्तराले' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। प्रकृत में 'अन्तराल' शब्द आकाशादि का, स्तिमितवायु का, अथवा अमूर्त द्रव्य प्रभृति का बोधक है। इनमें से किसी में भी गोत्यादि सामान्यों का न समवाय सम्बन्ध है, और न संयोग सम्बन्ध है। 'गोत्वादि जातियाँ बिना किसी सम्बन्ध के ही रहती हैं' इस प्रसङ्ग में भी कोई प्रमाण नहीं है। अत: कथित 'अन्तराल' में गोत्वादि सामान्य का व्यवहार नहीं होता है। फलतः वह अन्तराल में नहीं है। (प्र०) तो फिर उन देशों में अपने गवादि विषयों ( व्यक्तियों) के साथ वे किस प्रकार सम्बद्ध होते For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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