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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७४२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् मभिन्नात्मकमनेकवृत्ति एकद्विबहुष्यात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययकारि स्वरूपाभेदेनाधारेषु प्रबन्धेन वर्तमानमनुवृत्तिप्रत्ययकारणम् । कथम् ? प्रतिपिण्डं सामान्यापेक्षं प्रबन्धेन ज्ञानोत्पत्तावभ्यासप्रत्ययही स्वरूप से अपने सभी आश्रयों में बराबर ( बिना विराम के ) रहता हुआ 'अनुवृत्तिप्रत्यय' का, अर्थात् अपने आश्रय रूप विभिन्न व्यक्तियों में एक न्यायकन्दली तत्र सर्वस्मिन् गतं समवेतम्, सर्वत्र तत्प्रत्ययात् । सर्वसर्वगतत्वाभावे त्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम् । अभिन्नात्मकम्, अभिन्नस्वभावम् । येन स्वभावेनैकत्र पिण्डे वर्तते सामान्यं तेनेव स्वभावेन पिण्डान्तरेऽपि वतते, तत्प्रत्ययाविशेषादित्यर्थः । अनेकेषु पिण्डषु वृत्तिर्यस्य तदनेकवृत्ति । अभिन्नस्वभावमनेकत्र वर्तत इति च प्रतीतिसामर्थ्यात् समर्थनीयम् । नहि प्रमाणावगतेऽर्थे काचिदनुपपत्तिर्नाम। द्वित्वादिकमप्यभिन्नस्वभावमनेकत्र वर्तते, तस्मात् सामान्यस्य विशेषो न लभ्यते तत्राह-एकद्विवहुष्विति । सामान्यमेकस्मिन् पिण्डे द्वयोः पिण्डयोबहुषु वा पिण्डेष्वात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययं करोति । एकस्य पिण्डस्य द्वयोर्बहूनां वोपलम्भे सति गौरिति प्रत्ययस्य भावात्, द्वित्वादिकं त्वेवं न प्रतीति जिस आश्रय में हो, वही उपका 'स्वविषय' है। वह सभी विषयों में 'गत' अर्थात् समवाय सम्बन्ध से रहता है. क्योंकि उन सभी विषयों में उस (सामान्य) की प्रतीति होती है। सामान्यं सर्वसर्वगत' (अर्थात् सभी मामान्य सभी सामान्य के विषयों में) क्यों नहीं है ? इस प्रश्न का यही उत्तर है कि सर्वत्र सभी सामान्यों की प्रतीति नहीं होती है। 'अभिनात्मकम्' शब्द का अर्थ है 'अभिन्न स्वभाव' अर्थात् जिस वरूप से वह अपने एक आश्रय में रहता है, उसी स्वरूप से वह अपने और आश्रयों में भी रहता है। क्योंकि एक आश्रय में सामान्य की प्रतीति में एवं दूसरे आश्रयों में उसी सामान्य की प्रतीति में कोई अन्तर उपलब्ध नहीं होता। 'अनेकवृत्ति' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है 'अनेकेषु वृत्तिर्यस्य' अर्थात् अनेक आश्रयों में जो रहे वही 'अनेकवृत्ति है। सामान्य 'अभिन्न भाव' का है, और अनेक आक्षयों में रहता है। इन दोनों बातों का समर्थन तदनुकूल प्रामाणिक प्रनीतियों से करना चाहिए। क्योंकि प्रमाण के द्वारा निर्णीत अर्थ में किसी प्रकार की अनुपपत्ति की शङ्का नहीं की जा सकती । द्वित्वादि (व्यासज्यवृत्ति गुण) भी अनेक वत्ति हैं, और अभिन्न स्वभाव के भी हैं, अतः द्वित्वादि में सामान्य लक्षण की अतिव्याप्ति का निवारण उन दोनों विशेषणों से नहीं हो सकता, अत: एकद्विबहुषु' इत्यादि वाक्य लिखा गया है। अर्थात् (द्वित्वादि से सामान्य में यही अन्तर है कि) 'सामान्य' अपने एक आश्रय में दो आश्रयों में, अथवा बहुत से आश्रयों में प्रतीत होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक ही गोपिण्ड में 'अयं गौः' इस प्रकार से 'सामान्य' की प्रतीति होती For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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