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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ७३६ प्रशस्तपादभाष्यम् योगिनां च बहिरुद्रे चितस्य मनसोऽभिप्रेतदेशगमनं प्रत्यागमनं च, तथा सर्गकाले प्रत्यग्रेण शरीरेण सम्बन्धार्थ कर्मादष्टकारितम् । एवमन्यदपि महाभूतेषु यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यामनुपलभ्यमानकारणहोता है। इस शरीर के साथ मन के संयोग को उत्पन्न करनेवाली मन की क्रिया का नाम 'अपसर्पण' क्रिया है। एवं बाहर ( विषय ग्रहण के लिए ) निकला हुआ योगियों का मन जो उनके अभिप्रेत देश में ही जाता है और वहीं से लौट आता है, मन की वह क्रिया अदृष्ट से उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सृष्टि के आदि में शरीर के साथ मन का संयोग जिस क्रिया से होता है, उसका कारण न्यायकन्दली शरीरं परिकल्प्यते । तच्च मृतशरीरमतिक्रम्य मनसः स्वर्गनरकादिदेशातिवाहनधर्मकत्वादातिवाहिकमित्युच्यते । मरणजन्मनोरन्तराले मनसः कर्म शरीरोपगृहीतस्येवोपपद्यते, महाप्रलयानन्तरावस्थाभाविमनःकर्मव्यतिरिक्तत्वे सति मनःकर्मत्वाद् दृश्यमानशरीरवृत्तिमन.कर्मवत् । आगमश्चात्र संवादको दृश्यत इति । तत्संयोगार्थं च कर्मोपसर्पणमिति । तेन स्वर्गे नरके वा प्रत्यग्रजातेन शरीरेण मनःसयोगार्थ कर्मोपसर्पणमिति । छोड़कर और किसी भी समय शरीर से अम्बिद्ध मन में क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः स्थूल मृत शरीर के ही समीप में एक अति सूक्ष्म, उपलब्धि के सर्वथा अयोग्य, आतिवाहिक शरीर की कल्पना करते हैं, जिसकी उत्पत्ति सक्रिय परमाणुओं के द्वारा द्वयणुकादि क्रम से होती है। उन परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति अदृष्ट से होती है। उस सूक्ष्म शरीर का अति वाहिक शरीर' यह अन्वर्थ नाम इसलिए है कि मन को इस मृतशरीर से छुड़ाकर स्वर्गादि देशों तक अतिवहन' कर ले जाता है। इस वस्तुस्थिति के उपयुक्त यह अनुमान है कि शरीर से सम्बद्ध मन में ही वर्तमान में क्रिया देखी जाती है ( महाप्रलय रूप एक ही ऐसा समय है, जिस समः शरीर से असम्बद्ध मन में क्रिया रहती है ), अतः अनुमान करते हैं कि मृत्यु के बाद और पुनः जन्म लेने से पहिले इस बीच मन में जो क्रिया उत्पन्न होती है, उस समय भी मन का किसी शरीर के साथ सम्बन्ध अवश्य रहता है, क्योंकि मन की यह क्रिया भी महाप्रलयकालिक क्रिया से भिन्न मन की ही क्रिया है। इस सिद्धान्त को शास्त्ररूप शब्द प्रमाण का समर्थ। भो पास है। तत्संयोगार्थञ्च कर्मोपसर्पणमिति' सद्यः उत्पन्न उस स्वर्गीय या नारकीय शरीर के साथ सम्बन्ध के लिए ही मन में 'उपसर्पण' नाम की क्रिया उत्पन्न होती है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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