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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् नामवरोधार्थ गमनग्रहणं कृतमिति । अन्यथा हि यान्येव चत्वारि विशेषसंज्ञयोक्तानि तान्येव सामान्य विशेषसंज्ञाविषयाणि प्रसज्येरनिति । अथवा अस्त्वपरं सामान्यं गमनत्वम् , अनियतदिग्देशन होनेवाले भ्रमण, पतन, स्पन्दनादि क्रियाओं के संग्रह के लिए ही 'गमन' शब्द का उपादान किया गया है। यदि ऐसी बात न होती-भ्रमणादि क्रियाओं के संग्रह के लिए 'गमन' शब्द का उपादान न किया जाता तोजो भी चार कर्म उत्क्षेपण, अपक्षेपण आकुञ्चन, और प्रसारण इन चार नामों से कहे गये हैं, उतने ही कर्म समझे जाते ( फलतः उत्क्षेपणादि चार क्रियाओं से भिन्न भ्रमणादि क्रियाओं का अभाव ही समझा जाता)। अथवा ( कर्मत्व से भिन्न ) गमनत्व नाम का अलग सामान्य ही मान लें, जो अनियमित दिशाओं और अनियत देशों में संयोगों और विभागों के उत्पादक न्यायकन्दली उत्तरमाह-नेति । उत्क्षेपणादिशब्दैरनवरुद्धा न संगहीता भ्रमणादयः । यदि गमनग्रहणं न कियेत, तदा तेषां कर्मत्वेन संग्रहो न स्यात् । किन्तु विशेषसंज्ञयोद्दिष्टानामुत्क्षेपणादीनामेव परं कर्मत्वसंज्ञाविषयत्वं भवेत् । भ्रमणादयोऽपि च कर्मत्वेन लोकप्रसिद्धाः, अतस्तेषां परिग्रहार्थं पृथग् गमनग्रहणं कृतमिति ग्रन्थार्थः। अथवा अस्त्वपरं सामान्यं गमनत्वम्, तत् केषु वर्तते, तत्राह-अनियतेति । पक्ति से पूर्वपक्षी यह आक्षेप करते हैं कि (उत्क्षेपणादि की तरह) विशेष नाम के द्वारा गमन का उल्लेख क्यों किया गया है ? 'न' इत्यादि से इसी आक्षेप का उत्तर दिया है। अर्थात् यदि गमन शब्द का उल्लेख ( उत्क्षेपणादि शब्दों को पङ्क्ति में) न किया जाता तो जिन भ्रमणादि क्रियाओं का अवरोध ( संग्रह) उत्क्षेपणादि शब्दों के द्वारा सम्भव नहीं है, उन सबों का कम में संग्रह न हो सकता। (गमनशब्दाघटित उक्त वाक्य से केवल ) उत्क्षेपणादि क्रियाओं का ही संग्रह होता। किन्तु उत्क्षेपणादि से भिन्न भ्रमणादि क्रियाओं में भी कर्मत्व का व्यवहार लोक में होता है । अतः उन सबों के संग्रह के लिए ही गमन' शब्द का उल्लेख किया गया हैं। यही उक्त ( सिद्धान्त भाष्य ) ग्रन्थ का अभिप्राय है । _ 'अथवा अस्त्वपर सामान्यं गमनत्वम्' (अर्थात् गमनत्व को भी उत्क्षेपणत्वादि की तरह कर्मत्व का अवान्तर सामान्य ही मान लें, तब भी कोई क्षति नहीं है)। यह गमनत्व (कर्मत्वव्याप्य ) जाति किन कर्मों में रहती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'अनियत' इत्यादि सन्दर्भ से दिया गया है। तो फिर उत्क्षेपणादि कर्मों में गमन की प्रतीति For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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