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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् अथ गमनत्वं किं कर्मत्वपर्यायः १ आहोस्विदपरं सामान्यमिति ? कुतस्ते संशयः ? समस्तेषूत्क्षेपणादिषु कर्मप्रत्ययवद् गमनप्रत्ययाविशेषात् कमत्वपर्याय इति गम्यते । यतस्तूत्क्षेपणादिवद् विशेषसंज्ञयाभिहितं तस्मादपरं सामान्यं स्यादिति । (प्र०) गमनत्व शब्द और कर्मत्व शब्द ये दोनों क्या एक ही अर्थ के वाचक हैं ? या गमनत्व नाम की ( कर्मत्व व्याप्य ) अलग स्वतन्त्र जाति है ? ( उ० ) तुम्हें यह संशय ही क्यों कर हुआ ? (प्र० ) यतः उत्क्षेपणादि सभी क्रियाओं में यह कर्म है' इस आकार की प्रतीति की तरह सभी क्रियाओं में समान रूप से गमनत्वकी भी प्रतीति होती है, इससे ऐसा आभास होता है कि कर्मत्व और गमनत्व ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। एवं यतः उत्क्षेपणादि की तरह 'गमन' नाम की भी एक अलग क्रिया कही गयी है, अतः यह भी अनुभव होता है कि उत्क्षेपणत्वादि की तरह गमनत्व नाम की भी कर्मत्व व्याप्य एक स्वतन्त्र जाति ही है। __ न्यायकन्दली भवतूत्क्षेपणादीनां जातिभेदात् प्रत्ययभेदः । अथ गमनत्वं किं कर्मत्वपर्यायः, आहोस्विदपरं सामान्यमिति। सिद्धान्ती पृच्छति—कुतस्ते संशयः ? संशयोऽत्रानुपपन्न इत्यभिप्रायः। परः संशयमुपपादयति-समस्तेष्विति । उत्क्षेपणादिषु सर्वेषु यथा कर्मप्रत्ययश्चलनात्मकताप्रत्ययस्तथा तेषु गमनप्रत्ययः, ऊध्वं गच्छत्यधो गच्छति मूलप्रदेशं गच्छत्यनदेशं गच्छतीति प्रत्ययो भवतीति। तेन गमनत्वं कर्मत्वपर्याय इति गम्यते, समस्तभेदव्यापकत्वात् । यतस्तूत्क्षेपणादिवद् गमनमपि पृथगभिहितं विशेषसंज्ञया, तस्माद् गमनत्वमपरं सामान्यं स्यात्, पूर्वपक्षवादी 'अथ गमनत्वम्' इत्यादि सन्दर्भ से पूछते हैं कि मान लिया कि उत्क्षेपणादि कर्मों की विभिन्न प्रतीतियाँ उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के कारण ही होती हैं, किन्तु यह 'गमनत्व' कौन सी वस्तु है ? क्या यह कर्मत्व जाति का ही दूसरा नाम है ? अथवा कर्मत्व जाति से भिन्न यह कोई अलग ही जाति है ? 'कुतस्ते संशयः ?' इस वाक्य के द्वारा सिद्धान्ती पूर्वपक्षवादी से पूछते हैं कि तुम्हें यह संशय ही क्यों कर हुआ ? अर्थात् यह संशय यहाँ युक्त नहीं है । 'समस्तेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा पूर्वपक्षवादी अपने संशय का उपपादन करते हैं। अभिप्राय यह है कि उत्क्षेपणादि सभी क्रियाओं में जैसे कि 'कर्मप्रत्यय' अर्थात् चलनस्वरूपता की प्रतीति होती है, उसी प्रकार 'गमनप्रत्यय' अर्थात् ऊपर की ओर जाता है, नीचे की ओर जाता है, मूलप्रदेश में जाता है, अग्न प्रदेश में जाता है, इत्यादि गमनविषयक प्रतीतियां भी होती हैं, अतः For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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