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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली भूयासमिति मे भूयासुः" इति फलाकाङ्क्षया विना निवृत्तसाधनतया विहितमपरं चावश्यकरणीयं कर्म करोति । तस्मात् कर्मणो ज्ञानपूर्वकात् कृतादस्य विशुद्धे कुले जन्म भवति । अकुलीनस्य श्रद्धा न भवति । न चाश्रद्दधानस्य जिज्ञासा सम्पद्यते। न चाजिज्ञासोस्तत्त्वज्ञानम् । तद्विकलस्य च नास्ति मोक्षप्राप्तिः । अतो मोक्षानुगुणमसंकल्पितफलं कर्म विशुद्धे कुले जन्म ग्राहयति, विशुद्धे फुले जातस्य प्रत्यहं दुःखैरभिहन्यमानस्य दुःखविगमोपाये जिज्ञासा सम्पद्यते "कुतो नु खल्वयं मम दुःखोपरमः स्यात्” इति । स चैवमाविर्भूतजिज्ञास आचार्यमुपगच्छति, तस्य चाचार्योपदेशात् षण्णां पदार्थानां श्रौतं तत्त्वज्ञानं जायते । तदनु श्रवणमनननिदिध्यासनादिक्रमेण प्रत्यक्षं भवति । उत्पन्नतत्त्वज्ञानस्याज्ञाननिवृत्तौ सवासनविपर्ययज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य विच्छिन्नरागद्वेषसंस्कारस्य रागद्वेषयोरभावात् तज्जयोधमाधर्मयोरनुत्पादः। क्लेशवासनो. पनिबद्धा हि प्रवृत्तयस्तुषावनद्धा इव तण्डुलाः प्ररोहन्ति । क्षीणेषु क्लेशेषु निस्तुषा इव तण्डुलाः कार्यं न प्रतिसन्दधते । यथाह भगवान् पतञ्जलि: हो जाता है। फिर भी 'अहं भूयासम्', 'मे भूयासुः' ( मैं बराबर रहूँ और मेरे इष्ट विषय बराबर मुझे प्राप्त होते रहें) इस प्रकार की भावना बनी ही रहती है। फलाकाङ्क्षा की इस भावना से प्रेरित होकर वह नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान करता ही रहता है, क्योंकि उनको छोड़ने का कोई हेतु तब तक उपस्थित नहीं रहता। ये ही कर्म जब उक्त पुरुष के द्वारा ज्ञानपूर्वक किये जाते हैं, तो उस पुरुष को विशुद्ध कुल में जन्म प्राप्त होता है। क्योंकि अकुलीन पुरुष में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, एवं बिना श्रद्धा के जिज्ञासा नहीं होतो । जिसे जिज्ञासा नहीं, उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होना असम्भव है । बिना तत्त्वज्ञान के मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अतः निष्कामकर्म मोक्ष का सहायक है। तस्मात् वह पुरुष विशुद्ध कुल में जन्म लेता है। विशुद्ध कुल में उत्पन्न वह पुरुष जब प्रतिदिन के दुःख से पीड़ित होने लगता है, तो उसे दुःखनाश के कारणों के प्रसङ्ग में यह जिज्ञासा उठती है कि 'किन साधनों से इन दुःखों की निवृत्ति होगी? जब पुरुष में इस प्रकार की जिज्ञासा उठती है तो वह आचार्य के पास जाता है। आचार्य के उपदेश से उसे वेदवाक्यों के द्वारा आत्मतत्त्व का (परोक्ष ) ज्ञान होता है । फिर श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद निदिध्यासन, इस रीति से उसे आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है। प्रत्यक्षात्मक इस आत्मतत्त्वज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर संसार के निदान भूत विपर्यय (मिथ्याज्ञान ) का जड़मल से विनाश हो जाता है। जिससे विषयों से वैराग्य उत्पन्न होता है। विरक्त पुरुष के राग और द्वेष के संस्कार भी घट जाते हैं। राग और द्वेष के छूट जाने पर ८६ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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