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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૬૭૮ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् गुणनिरूपणेधर्म प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि। विहिताकरणं प्रमादश्चैतानि दुष्टाभिसन्धिं चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगादधर्मस्योत्पत्तिः । __ अविदुषो रागद्वेषवतः प्रवर्तकाद् धर्मात् प्रकृष्टात् स्वन्पाधर्मसहिताद् ब्रह्मेन्द्र प्रजापतिपितृमनुष्यलोकेष्वाशयानुरूपैरिष्टशरीरे. न्द्रियविषयसुखादिभिर्योगो भवति । तथा प्रकृष्टादधर्मात् स्वल्पधर्मएवं धर्म साधन के विरोधी हिंसा, असत्य प्रभृति इ के साधन हैं। शास्त्रों में अनुष्ठान के लिए निर्दिष्ट कामों को न करना एवं प्रमाद ये दोनों भी अधर्म के हेतु हैं। ( अधर्म के ) ये सभी हेतु एवं कर्ता के दुष्ट अभिप्राय इन सबों की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा अधर्म की उत्पत्ति होती है। प्रवृत्तिजनक उत्कृष्ट धर्म के द्वारा थोड़े से अधर्म की सहायता स ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक, पितृलोक एवं मनुष्यलोक में उपयुक्त भोग के अनुरूप इन्द्रिय, विषय एवं सुखादि के साथ तत्त्वज्ञान से रहित एवं राग और द्वेष से युक्त पुरुष का सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार थोड़े से न्यायकन्दली भिद्रोहः। अनतं मिथ्यावचनम्। स्तेयमशास्त्रपूर्व परस्वग्रहणम् । एवमादीनि धर्मसाधनविपरीतानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि यानि, तान्यधर्मसाधनानि । विहिताकरणं विहितस्यावश्यंकरणीयस्याकर्तव्यता। प्रमादोऽबुद्धिपूर्वकोऽतिक्रमः, एतदपि द्वयमधर्मसाधनम् । यथैतेभ्यो धर्मस्योत्पत्तिस्तद् दर्शयति-एतानीति। यत्र कामनापूर्वकमधर्मसाधनानुष्ठानं तत्र दुष्टोऽभिसन्धिरधर्मकारणम् । अकामकृते तु प्रमादेनास्य हेतुत्वम् । साथ अभिद्रोह करना ही 'हिंसा' है । मिथ्याभाषण ही 'अनृत' शब्द का अर्थ है। शास्त्रों में कहे हुए उपायों से विपरीत उपायों के द्वारा दूसरे के धन का ग्रहण करना ही 'स्तेय' है । धर्म के साधनों के विरुद्ध एवं शास्त्रों से निषिद्ध जो हिंसादि उपाय हैं, वे ही अधर्म के साधन हैं । शास्त्रों के द्वारा अवश्य करने के लिए निर्दिष्ट कर्मों का न करना ही 'विहिताकरण' है। अनजान में शास्त्रीय मर्यादा के अतिक्रम को ही 'प्रमाद' कहते हैं। (विहिताकरण और प्रमाद ) ये दोनों भी अधर्म के साधन हैं। 'एतानि' इस वाक्य के द्वारा इन साधनों के द्वारा किस रीति से अधर्म की उत्पत्ति होती है ? वह दिखलायी गयी है। जहाँ किसी कामना के वशीभूत होकर अधर्म के साधनों का अनुष्ठान किया जाता है, वहाँ 'दुष्टाभिसन्धि' अधर्म का कारण है। जहाँ अधर्म के साधनों का अनुष्ठान अनजाने होता है, वहाँ प्रमाद के द्वारा उन साधनों में हेतुता आती है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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