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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे धर्म प्रशस्तपादभाष्यम् ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वा ग्रामानिर्गतस्य वनवासो वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणं च; वन्यहुतातिथिशेषभोजनानि वानप्रस्थस्य । __ त्रयाणामन्यतमस्य श्रद्धावतः सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा, संन्यस्य स्वानि कर्माणि, यमनियमेष्वप्रमत्तस्य षट्पदार्थप्रसंख्यानाद् योगप्रसाधनं प्रव्रजितस्येति । दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्यैतानि साधनानि भावप्रसादं चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्मोत्पत्तिरिति । ग्रामों को छोड़ कर वनों में रहना, वल्कल, अजिन, केश, दाढ़ीमुंछ, नख और रोम इन सबों को धारण करना ( कभी त्याग न करना) एवं वनों के कन्द मूल फलों एवं होम से और अतिथियों से अवशिष्ट अन्नों का भोजन करना, ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम दोनों में से किसी भी आश्रम से वानप्रस्थ लिए हुए सभी जनों के लिए विशेषधर्म के साधन हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम इन तीनों में से किसी भी आश्रम से कोई भी श्रद्धाशील पुरुष ( जब ) सभी प्राणियो को सदा के लिए अपनी ओर से अभय देकर अपने ( और ) सभी कर्मों से छूट जाते हैं, फिर भी यमनियमादि का बिना प्रमाद के पालन करते रहते हैं । वे ही ) परिव्राजक ( कहलाते हैं उनके लिए ( इस शास्त्र में वर्णित ) षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान के द्वारा योग का अनुष्ठान ही विशेष धर्म का साधन है। धर्म के ये साधन ( लाभ पूजादि ) दृष्ट प्रयोजनों के बिना अनुष्ठित होने के बाद विशुद्ध अभिप्राय की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा धर्म को उत्पन्न करते हैं । न्यायकन्दली वनस्थस्य धर्मसाधनं कथयति ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वेति “यदहरे। वास्य श्रद्धा भवति तदहरेवायं प्रव्रजेत्” इति श्रवणात सति श्रद्धोपनये ब्रह्मचारिणो वनवासो भवति । गृहस्थस्य वा तस्य वानप्रस्थव्रतमाचरतो वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणम्, वन्यस्य फलमूलस्य भोजनं हुतशेषभोजनम्, 'ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वा' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा वानप्रस्थाश्रमियों के धर्म के साधन कहे गये हैं । 'यदहरेवास्य श्रद्धा भवति तदहरेवायं प्रव्रजेत्' ऐसी श्रुति है, तद्नुसार उपयुक्त श्रद्धा के उत्पन्न होने पर ब्रह्मचर्याश्रम से भी सीधे वानप्रस्थाश्रम में जा सकता हैं इसी अभिप्राय से 'ब्रह्मचारिणः ऐसा कहा गया है । 'गृहस्थस्य वा' अर्थात् यदि गृहस्थ वानप्रस्थाश्रमी हो जाय तो 'वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणम्' अर्थात् वल्कल और अजिन का परिधान एवं केश और दाढ़ी मूछों का रखना ये सभी गृहस्थवानप्रस्थाश्रमियों के धर्म के समान हैं । एवं 'वन्य' जो फलमूल उसका भोजन, होम से बचे हुए हवि का भोजन, एवं अतिथि को देकर उससे बचे हुए अन्न का भोजन ( वान For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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