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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६५१ प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दलो इति चेत् ? यदि हि स्मृतिरपि क्रमभाविनी ? तदा नास्ति वर्णसाहित्यम्, तृतीयवर्णग्रहणकाले प्रथमवर्णस्मृतिविलोपात्, युगपदुत्पादस्तु स्मृतीनामनाशङ्कनीय एव, ज्ञानयोगपद्यप्रतिषेधात् । ____ अथ प्रथममाद्यवर्णज्ञानम्, तदनु संस्कारः, तदनु तृतीयवर्णज्ञानम्, तेन प्राक्तनेन संस्कारेणान्त्यो विशिष्टः संस्कारो जन्यत इत्यनेन क्रमेणान्ते निखिलवर्णविषयः संस्कारो जातो निखिलवर्णविषयामेकामेव स्मृति युगपत् करोतीत्याश्रीयते, तदा कमो हीयेत । क्रमो हि पौर्वापर्यम्, तच्च देशनिबन्धनं कालनिबन्धनं वा स्यात्, उभयपि तद्वणेषु नावकाश लभते, तेषां सर्व प्रत्यक्ष के समय पूर्व के सभी वर्गों का रहना सम्भव नहीं है । (प्र०) वर्ण तो नित्य हैं, अतः सभी गमयों में उनकी सत्ता सम्भावित है, सुत राम् वर्णों । समुदाय असम्भव नहीं है। (उ०) फिर भी किसी एक समय में सभी वणों का ग्रहण सम्भव नहीं है। वर्ण गृहीत होकर ही अर्थप्रत्यय के कारण है। यदि वर्ण स्वरूपतः अर्थप्रत्यय के कारण हों, तो फिर उनसे नर्वदा अर्थ की तोति होनी चाहिए, क्योंकि एकबार ज्ञात वर्ण के अज्ञान में और वर्णों के सर्वया अज्ञान में कोई अन्तर नहीं है । अतः इस प्रकार भी वर्ण समूह से सर्वप्रत्यय का उपपादन नहीं किया जा सकता। (प्र०) पद या वाक्य के जितने वर्ण पहिले ज्ञात हैं, वे सभी पुनः स्मृतिपथ में आकर अर्थ बोध का उत्पादन करते हैं। (उ०) (इस प्रसङ्ग में पूछना है कि पद या वाक्य के प्रत्येक वर्ण को अलग २ स्मृति होती है ? या सभी वर्गों का एक ही स्मरण होता है ?) इनमें यदि यह प्रथमपक्ष माने कि पद या वाक्य के प्रत्येक वर्ण की स्मृति क्रमशः होती है, तो फिर स्मृति में भी वर्गों का एकत्र होना सम्भव नहीं है, क्योंकि तीसरे वर्ण की स्मृति के समय प्रथम वर्ण की स्मृति अवश्य ही विनष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्णविषयक सभी स्मृतियों का एक ही समय उत्पन्न होना तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि एक समय अनेक ज्ञानों को उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि इस प्रकार की कल्पना करें कि (प्र.) पहिले प्रथम वर्ण का ज्ञान होता है, उसके बाद उस वर्ण विषयक संस्कार की उत्पत्ति होती है, उसके बाद तृतीय वर्ण का ज्ञान, इसके बाद उसी क्रम से पहिले पहिले के संस्कारों से अन्तिम वर्णविषयक विशेष प्रकार के संस्कार की उत्पत्ति होती है । अन्त में सभी वर्गों के इस एक ही सस्कार से एक ही समय सभी वर्णविषयक एक ही स्मृति की उत्पत्ति होती है । (उ०) तो फिर वर्गों में क्रम ही नहीं रह जाएगा, क्योकि पूर्वापरीभाव (एक के बाद दूसरा) को ही क्रम कहते हैं। यह क्रम दो प्रकारों से सम्भव है (१) देशमूलक और (२) क. लमूलक । वर्गों में इन दोनों में से एक भी प्रकार के क्रम की सम्भावना नहीं है। क्योंकि वर्ण व्यापक हैं, इस लिए दैशिक पूर्वापरीभाव रूप क्रम सम्भव नहीं है । वर्ण नित्य (अविनाशी) हैं, इसीलिए कालिक पूर्वापरीभान की मम्भावना भी नहीं है । अतः वर्गों में क्रम की उपपत्ति का एक ही मार्ग बच For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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