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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे प्रयत्न प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः। स द्विविधः-जीवनपूर्वकः, इच्छाद्वेषपूर्वकश्च । तत्र जीवनपूर्वकः सुप्तस्य प्राणापानसन्तानप्रेरकः, प्रबोधकाले चान्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुः। अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः । इतरस्तु हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यापारस्य हेतुः शरीरविधारकश्च । स चात्ममनसोः संयोगादिच्छापेक्षाद् द्वेषापेक्षाद् वोत्पद्यते ॥ - प्रयत्न, संरम्भ, उत्साह ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। यह (प्रयत्न ) (१) जीवनपूर्वक ( जीवनयोनि) और (२) इच्छाद्वेषपूर्वक भेद से दो प्रकार का है। प्राणियों की सुप्तावस्था में प्राणवायु अपानवायु प्रभृति ( शरीरान्तर्वर्ती) वायु समूह को ( उचित रूप से ) प्रेरित करनेवाला एवं अन्तःकरण (मन ) को दूसरी इन्द्रियों से सम्बद्ध करनेवाला प्रयत्न ही जीवनपूर्वक प्रयत्न है। धर्म और अधर्म से साहाय्य-प्राप्त आत्मा और मन के संयोग से इस (जीवनपूर्वक प्रयत्न ) की उत्पत्ति होती है। दूसरा ( इच्छा द्वेष मूलक ) प्रयत्न हितों की प्राप्ति एवं अहितों का परिहार इन दोनों की उपयुक्त क्रिया एवं शरीर की स्थिति इन दोनों का कारण है। यह ( इच्छाद्वेषमूलकप्रयत्न ) इच्छा या द्वेष से साहाय्य प्राप्त आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है। न्यायकन्दली अपकृतस्य प्रत्यपकारासमर्थस्यान्तनिगूढो द्वेषो मन्युः । परगुणद्वेषोऽक्षमा। स्वगुणपरिभवसमुत्थो द्वषोऽमर्षः। प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः । स द्विविधो जीवनपूर्वक इत्यादि । सदेहस्यात्मनो विपच्यमानकर्माशयसहितस्य मनसा सह संयोगः सम्बन्धो जीवनम्, तत्पूर्वकः प्रयत्नः कामर्थक्रियां करोति ? इत्यत आह--तत्र का नाम है, जो प्रतीकार करने से असमर्थ व्यक्ति में अत्यन्त गूढ़ रूप से रहता है। दूसरे के गुण के प्रति द्वेष को ही 'अक्षमा' कहते हैं। अपने गुण के पराजय से जो द्वेष उत्पन्न होता है उसे 'अमर्ष' कहते हैं । 'प्रयत्न: संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः, स द्विविधो जीवनपूर्वक इत्यादि' देहसम्बद्ध आत्मा का मन के साथ उस अवस्था का संयोग अर्थात् सन्बन्ध ही 'जीवन' है, जिस अवस्था में वर्तमानकालिक विपाक से युक्त कर्माशय की सत्ता उसमें रहे । जीवनपूर्वक प्रयत्न से कौन सा विशेष कार्य होता है । इसी प्रश्न का समाधान 'तत्र जीवनपूर्वकः' इत्यादि से किया गया है । ( जीवनपूर्वक प्रयत्न का साधक यह अनुमान है कि ) सोते For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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