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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे आर्षज्ञान प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धेष्वनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत् तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् , कदाचिदेव लौकिकानाम् , यथा कन्यका ब्रवीति 'श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयति' इति । और वर्तमान ( तीनों कालों में से किसी में भी रहनेवाले ) अतीन्द्रिय धर्मादिविषयक एवं उनके स्वरूप के परिचायक जो 'प्रातिभ' ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'आर्ष' कहते हैं । यह प्रायः देवताओं और महर्षियों को ही होता है। कदाचित् ही साधारण जन को यह ज्ञान होता है। जैसे कि बालिका कहती है कि, मेरा मन कहता है कि 'कल मेरे भाई आयेंगे। न्यायकन्दली ये त्वनर्थजत्वात् स्मृतेरप्रामाण्यमाहुः, तेषामतीतानागतविषयस्यानुमानस्याप्रामाण्यं स्यादिति दूषणम्।। आर्ष व्याचष्टे--आम्नायविधातणामिति । आम्नायो वेदस्तस्य विधातारः कर्तारो ये ऋषयस्तेषामतीतेष्वनागतेषु वर्तमानेष्वतीन्द्रियेषु धर्माधमदिक्कालप्रभृतिषु ग्रन्थोपनिबद्धष्वागमप्रतिपादितेष्वनुपनिबद्धष्वागमाप्रतिपादितेषु चात्ममनसोः संयोगाद् यत् प्रातिभं ज्ञानं यथार्थनिवेदनं यथास्वरूपसंवेदनं संशयविपर्ययरहितं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते विद्वांसः। इन्द्रियलिङ्गाद्यभावे यदर्थप्रतिभानं सा प्रतिभा, प्रतिभैव प्रातिभमित्युच्यते तत्र भवद्भिः। जो सम्प्रदाय स्मृति को इस हेतु से अप्रमाण मानते हैं कि वह अर्थ जनित नहीं है ( अर्थात् उसके अव्यवहित पूर्वक्षण में विषय की सत्ता नहीं रहती है, अतः वह प्रमाण नहीं है ) उनके मत में भूत और भविष्य विषयक अनुमान में अप्रामाण्य रूप दोष होगा। _ 'आम्नायविधातृ णाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'आष' विद्या की व्याख्या करते हैं ! वेदों को 'आम्नाय' कहते हैं। उसके जो 'विघातागण' अर्थात् रचना करनेवाले ऋषि लोग, उन्हें अतीत, अनागत और वर्तमान काल के 'अतीन्द्रिय' वस्तुओं का अर्थात् धर्म, अधर्म एवं दिशा और काल प्रभृति पदार्थो का, एवं 'ग्रन्थोपनिबद्ध' अर्थात् आगमों के द्वारा कथित, एवं 'ग्रन्थानुपनि वद्ध' अर्थात् आगम के द्वारा अप्रतिपादित अर्थों का जो आत्मा और मन के संयोग से 'प्रातिभ' 'यथार्थनिवेदन' रूप अर्थात् संशय और विपर्यय से भिन्न विषयानुरूप ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे विद्वान् लोग 'आर्ष' कहते हैं। इन्द्रिय एवं हेतु प्रभृति यथार्थ ज्ञान के साधनों के न रहते हुए भी जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'प्रतिभा' कहते हैं। इस 'प्रतिभा' को ही आदरणीय विद्वद्गण 'प्रातिभ' For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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