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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसङ्गात् । तथाहि प्रतिज्ञानन्तरं हेतुमात्राभिधानं कर्तव्यम्, विदुषामन्वयव्यतिरेकस्मरणात् तदर्थावगतिर्भविष्यतीति, तस्मादत्रैवार्थपरिसमाप्तिः । फिर उक्त पक्ष में ( केवल प्रतिज्ञा और हेतु वाक्य को छोड़कर निदर्शन और अनुसन्धान इन दोनों के भी वैयथ्य की आपत्ति होगी ), क्योंकि ( पूर्वपक्षवादी की रीति के अनुसार ) प्रतिज्ञावाक्य के बाद केवल हेतु वाक्य के प्रयोग से ही प्रकृत प्रयोजन की निष्पत्ति हो जाएगी, क्योंकि ( व्याप्ति से ) अभिज्ञ पुरुष को ( व्याप्ति के कारणीभूत अन्वय और व्यतिरेक का स्मरण यों ही ( बिना निदर्शनवाक्य और अनुसन्धानवाक्य के सुने ही ) हो जाएगा । ( प्रतिज्ञावाक्य के प्रयोग के बाद हेतुवाक्य का प्रयोग होने के बाद ही ) अभीष्ट अर्थ का बोध सम्पन्न हो जाएगा । अतः ( प्रतिज्ञादि चार अवयवों के प्रयोग को पूर्व पक्षी जिस दृष्टि से आवश्यक मानते हैं, उसी दृष्टि से उन्हे मानना होगा कि ( प्रत्याम्नाय पर्यन्त पाँच अवयववाक्यों के प्रयोग से ही अभीष्ट अर्थ के ज्ञान की समाप्ति हो सकती है ) । न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणेऽनुमानेऽवयव हेत्वादिभिरवयवैः पक्षधर्मतान्वयव्यतिरेकोपपन्नं लिङ्गम् । तावतैव च तस्मादर्थावगतिसम्भवात् कृतं निगमनेनेति । समाधत्ते - नातिप्रसङ्गादिति । वाक्यं लिङ्गसामर्थ्यमेव बोधयति न साध्यम् । किं तु न तस्य सामर्थ्यं बहिर्व्याप्तिपक्षधर्मतामात्रम्, सत्यपि तस्मिन् प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टयोरसाधकत्वात्, अपि त्वबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वमपि सामर्थ्यम् । तत्सद्भावो यावत्प्रमाणेन न प्रतिपाद्यते तावत्प्रतिपक्षसम्भवाशङ्काया अनिवर्तनात् । धर्मिण्युपसंहृतेऽपि साधने साध्यप्रतीतेरयोग इति विपरीत प्रमाणाभावग्राहकं For Private And Personal ( व्याप्ति ) एवं पचधर्मता इन दोनों से युक्त हैतु की उपस्थिति तो हेतु उदाहरण और उपनय इन्हीं अवयवों से सम्पन्न हो जाती है, फिर कौन सी आवश्यकता अवशिष्ट रह जाती है, जिसके लिए निगमनवाक्य का प्रयोग आवश्यक होता है ? "न, अतिप्रसङ्गात् " इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस आक्षेप का समाधान करते हैं । ( उदाहरणादि अवयव ) वाक्यों सेलिङ्ग के ( व्याप्ति और पक्षधर्मता रूप ) सामर्थ्य का ही बोध होता है साध्य का नहीं, किन्तु केवल व्याप्ति और पक्षधर्मता ये ही दोनों हेतु के सामथ्यं नहीं हैं, क्योंकि उक्त सामर्थ्य के रहने पर भी प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्षित ) और कालात्ययापदिष्ट (बाधित ) हेतु से साध्य को सिद्धि नहीं होती । अतः हेतु में साध्यसिद्धि के उपयुक्त सामर्थ्य के लिए यह भी आवश्यक है कि पक्ष में उसके साध्य की बाध न हो, एवं पक्ष में उसके साध्य के अभाव साधक का कोई दूसरा हेतु न रहे, फलतः अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये दोनों भी हेतु सामर्थ्य हैं | प्रमाण के द्वारा जब तक
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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