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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८३ अथैको धर्मः सपक्षविपक्षयोर्दर्शनाद् धर्मिणि सन्देहं कुर्वन् सन्दिग्धो हेत्वाभासः स्यात्, एवमेकस्मिन् धर्मिणि द्वयोर्हेत्वोस्तुल्यबलयोविरुद्धार्थप्रसाधकयोः सन्निपाते सति संशयदर्शनादयं विरुद्धद्वयसन्निपातोऽन्यः सन्दिग्धो हेत्वाभास इति कैश्चिदुक्तम्, तद् दूषयितुमुपन्यस्यति - एकस्मिश्चेति । तस्योदाहरणमाहयथा मूर्तत्वामूर्तत्वं प्रति मनसः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोरिति । मूर्त मनः क्रियावत्त्वाच्छ्रादिवत्, अमूर्तं मनोऽस्पर्शवत्त्वादाकाशादिवदिति विरुद्धार्थप्रसाधकयोः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोर्हत्वोः सन्निपाते मनसो मूर्त्तत्वामूर्त्तत्वं प्रति संशयः, नह्यत्रो भयोरपि साधकत्वम्, वस्तुनो द्वयात्मकत्वासम्भवात् । नानि परस्परविरोधादुभयोरप्यसाधकत्वम् मूर्तामूर्तत्वव्यतिरेकेण प्रकारान्तराभावात् । न किसी सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि जिस प्रकार सपक्ष और विपक्ष दोनों में यदि एक ही धर्म ( हेतु) देखा जाय तो वह धर्मी ( पक्ष ) में साध्य के सन्देह को उत्पन्न करने के कारण 'सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास होगा, उसी प्रकार परस्पर विरुद्ध दो साध्यों के साधक एवं समानबल के दो हेतु यदि एक धर्मी में देखे जाँय तो भी उस धर्मी में उक्त दोनों विरुद्ध साध्यों का संशय होगा । अतः यह 'विरुद्धद्वयसंनिपात' मूलक एक अलग ही ' सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास है । इस पक्ष को खण्डन करने का ही उपक्रम 'एकस्मिश्च' इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है। इसी ( विशेष प्रकार के ) सन्दिग्ध का उदाहरण 'यथा मूर्त्तत्वामूर्त्तत्वं प्रति मनसः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोः ' इस वाक्य के द्वारा प्रदर्शित हुआ है। प्रकार घट शरावादि क्रिया से युक्त होने के कारण मूर्त्त हैं, उसी प्रकार है, क्योंकि वह भी क्रियाशील है' एवं 'जिस प्रकार आकाश स्पर्श से कारण मूर्त नहीं है, उसी प्रकार मन भी स्पर्श से विहीन होने के कारण अमूर्त है' इस रीति से मूर्त्तत्व और अमूर्त्तत्व रूप दो विरुद्ध साध्य को सिद्ध करनेवाले क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्व रूप दोनों हेतुओं का एक ही मन रूप धर्मी में यदि सम्मिलन होता है, तो मन रूप धर्मी में यह संशय होता है कि 'मन मूर्त है ? एक वस्तु एक ही प्रकार की हो सकती है, परस्पर विरोधी दो मन मूर्त ही होगा या अमूर्त ही ), अतः वे दोनों हेतु पक्ष में अपने अपने साध्य ( अर्थात् मूर्त्तत्व एवं अमूर्त्तत्व के ) निश्चय का उत्पादन रहित होने के अथवा अमूर्त ?” । चूंकि प्रकार की नहीं ( सुतराम् रूप अपने एक ही मन नहीं कर सकते । यह कहना भी सम्भव नहीं है कि ( प्र० ) चूंकि मूर्त्तत्व और अमूर्त्तत्व दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः मन रूप एक ही धर्मी में उक्त दोनों साध्यों को साधन करने का सामर्थ्य उन दोनों हेतुओं में से ( उ० ) क्योंकि मन को मूर्त या अमूर्त इन दोनों से भिन्न होना सम्भव नहीं है, ( अतः उन दोनों में से एक हेतु मन में अपने साध्य का साधक किसी में भी नहीं है । किसी तीसरे प्रकार का For Private And Personal अभिप्राय यह है कि 'जिस मन भी मूर्त पुस्तक के इस सन्दर्भ में जो 'अयं सपक्षविपक्षयोर्ध्यापको विपक्षैकदेश वृत्तिरनैकान्तिकः ' यह पाठ है उसमें 'विपक्षयोः' यह प्रमाद से लिखा गया जान पड़ता है ।
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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