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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽपित्त्यन्तर्भाव न्यायकन्दली पाक्यस्य तदर्थस्य वा रात्रिवाक्येन सह प्रत्यासत्यभावान्न ताभ्यां तदुपस्थापनमिति, अर्थप्रत्यासत्तिद्वारेण वाक्यस्यापि प्रत्यासन्नत्वात् । न चार्थापत्तावनमानवत् प्रत्यासत्तिरपेक्षते, तस्या अनुपपत्तिमात्रेणैव प्रवृत्तः । तदुक्तम् न चार्थनार्थ एवायं द्वितीयो गम्यते पुनः । सविकल्पकविज्ञानग्राह्यत्वावृत्तिरोहितः ।। शब्दान्तराण्यबुद्ध्वाऽसामर्थ्यमेवावगच्छति । तेनैषां प्रथमं तावन्नियतं वाक्यगोचराः । वाक्यमेव तु वाक्यार्थं गतत्वाद् गमयिष्यति ।। इति । 'रात्री भुङ्क्ते इस वाक्य की उपस्थिति नहीं हो सकती। ( उ०) चूंकि 'पीनी दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य के अर्थ के साथ 'रात्री भुङ्क्ते' इस वाक्य के अर्थ का नियत सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के द्वारा ही 'पीनो दिवा न भुङ्ते' इस वाक्य के साथ भी 'रात्रौ भुङ्क्ते, इस वाक्य का नियत सम्बन्ध अवश्य है। (दूसरी बात है कि ) अर्थापति को अपने प्रमेय में प्रवृत्त होने के लिए अनुमान की तरह नियत सम्बन्ध की अपेक्षा भी नहीं होती है उसका काम अर्थानुपपत्ति से ही चल जाता है । जैसा कहा गया है कि (१) 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङक्ते' इस वाक्य से भोजन न करने वाले देवदत्त की पीनता का शाब्दबोध रूप सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है ( इस सविकल्पक ज्ञान में विषयीभूत दिन में न खाने वाले देवदत्त की मोटाई रूप प्रथम ) अर्थ के द्वारा (रात्रि भोजन रूप द्वितीय अर्थ ज्ञात नहीं होता है क्योंकि वह (रात्रि भोजन रूप द्वितीय अर्थ) 'वृत्तिरोहित' नहीं है, अर्थात् किसी शब्द से (अभिधादि) 'वृत्ति के द्वारा उपस्थित नहीं है। (२) अतः 'पीनो दिवा न भुङक्त' इस वाक्य को सुनने के बाद 'रात्रिभोजन' रूप दूसरे अर्थ को समझानेवाले 'रात्री भुक्ते' इत्यादि किसी दूसरे शब्द को न सुनकर (समझनेवाला पुरुष) इतना ही समझता है कि 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य में रात्रि भोजन रूप अर्थ को समझाने का सामर्थ्य नहीं है । (३) अतः (श्रतार्थापत्ति स्थल में) अर्थापति के द्वारा पहिले रात्री भुङ्क्ते' इत्यादि वाक्यों का ही बोध होता है। इसके बाद अर्थापत्ति के द्वारा ज्ञात 'रात्रो भुङ्क्ते' यह वाक्य ही रात्रि भोजन रूप अर्थ विषयक बोध को उत्पन्न करेगा। १. उपक्रम और उपसंहार को हष्टि से इन श्लोकों का यथाश्रुत पाठ ठीक नहीं अँचता । इन श्लोकों का निम्नलिखित स्वरूप का होना उचित जान पड़ता है तदनुसार ही अनुवाद किया गया है। न चार्थेनार्थ एवायं द्वितीयो गम्यते पुनः । सविकल्पकविज्ञानग्राोणावृत्तिरोहितः ।। शब्दान्तराण्यबुद्ध्वाऽसामर्थ्य मेवावगच्छति । तेनैषा प्रथमं तावन्नियतं वाक्यगोचरा । वाक्यमेव तु वाक्यार्थं गतत्वाद् गमयिष्यति ।। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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