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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ५३७ न्यायकन्दली कल्पयति, अन्यस्मिन् कल्पिते च न तस्योपपत्तिरिति चेत् ? बहिर्भावे सति तस्योपपत्तिरिति केन तत् कथितम् ? वयं तु ब्रूमो बहिर्भावेऽपि सति गृहाभावस्यानुपपत्तिरेव । दृष्टमेतद् अव्यापकं द्रव्यमेकत्रास्ति तदन्यत्र नास्तीति । यथा प्राची. प्रतीच्योरेकत्रोपलभ्यमानः सविताऽन्यत्र न भवतीति, इदं दर्शनबलेनैवावधार्यते जीवतो गृहाभावो बहिर्भावे सत्युपपद्यते नान्यथेति । नन्वेवमन्वयावगतिपूविकैव तथोपपत्त्यतगतिः ? तथा सति चापत्तिरनुमानमेव, अन्वयाधीनजन्मत्वात् । यत्तु विरोधे सति प्रवर्तत इति तद् वैधर्म्यमात्रम् । तथा चात्र प्रयोगः-देवदत्तो बहिरस्ति, जीवनसम्बन्धित्वे सति गृहेऽनुपलभ्यमानत्वात्, अहमिवेति । श्रुतार्थापत्तिमन्तर्भावयति-श्रवणादनुमितानुमानमिति । पोनो दिवा न भुङ्क्ते, इति वाक्यश्रवणाद् रात्रिभोजनकल्पना 'अनुमितानुमानम्'। लिङ्गभूतेन वाक्येनानुमितात् पीनत्वात् तत्कारणस्य रात्रिभोजनस्यानुमानात् । चैत्र का गृह में न रहना (गृहाभाव) अपनी उपपत्ति के लिए ही दूसरे अर्थ की कल्पना करता है, यह काम चैत्र के बहिर्भाव रूप दूसरे अर्थ को कल्पना से ही सम्भव है और किसी दूसरे अर्थ की कल्पना से नहीं। अतः वह चैत्र के बहिर्भाव की ही कल्पना करता है, किसी और अर्थ की नहीं । ( उ.) यह आपसे किसने कहा कि चैत्र के बाहर रहने की कल्पना कर लेने से ही चैत्र के घर में न रहने की उपपत्ति हो जाएगी? यदि हम यह कहें कि जीवित चैत्र के बाहर रहने की कल्पना कर भी ली जाय, तो भी चैत्र का घर में न रहना अनुपपन्न ही रहेगा। यदि इसका यह उत्तर दें कि (प्र०) (व्यापक आकाशादि को छोड़कर ) जितने भी अव्यापक (मूर्त) द्रव्य हैं, उनको देखते हैं कि एक समय यदि एक आश्रय में रहते हैं तो दूसरे में नहीं। जैसे कि पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा इन दोनों में से किसी एक में जिस समय सूर्य की उपलब्धि होती है, उस समय वे दूसरी दिशा में नहीं रहते। इसी से यह समझते हैं कि जीवित चैत्र का घर में न रहना, चैत्र के बाहर रहने से ही उपपन्न हो सकता है। ( उ० ) यदि ऐसी बात है तो फिर चैत्र के बहिर्भाव में उसके गृह में न रहने की अन्वयव्याप्ति से ही अर्थापत्ति होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि चूंकि अापत्ति की उत्पत्ति अन्वयव्याप्ति से होती है, अतः वह अनुमान ही है। यह ( अर्थापत्ति रूप अनुमान) जो विरोध के कारण अपने कार्य में प्रवृत्त होता है, इससे और अनुमानों से इसकी विचित्रता हो केवल व्यक्त होती है, ( इससे इसका अनुमान न होना निश्चित नहीं होता )। प्रकृत में अनुमान का यह प्रयोग इष्ट है कि जैसे कि 'जीवन सम्बन्ध से युक्त मैं घर में न रहने पर बाहर अवश्य रहता हूँ' उसी प्रकार जीवन के सम्बन्ध से युक्त देवदत्त घर में अनुपलब्ध होने के कारण अवश्य ही बाहर हैं। 'श्रवणादनुमितानुमानम्' इस वाक्य के द्वारा 'श्रुतार्थापत्ति' को अनुमान में अन्तर्भूत करते हैं। 'श्रवणात्' अर्थात् 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य को सुनने से जो ६८ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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