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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली गवयग्रहणे सत्यसन्निहितगोपिण्डावलम्बिनी सादृश्यप्रतीतिः सदृशदर्शनाभिव्यक्तसंस्कारजन्या स्मृतिरेव, न प्रमाणान्तरम् । दृष्टा च निविकल्पकगृहीतस्यापि स्मृतिविषयता, अव्युत्पन्नेनैकपिण्डग्रहणे प्रथममविकल्पितस्य सामान्यस्य पिण्डान्तरग्रहणे प्रत्यभिज्ञानात् ।। येऽपि श्रुतातिदेशवाक्यस्य गवयदर्शने गोसादृश्यप्रतीत्या 'अस्य गवयशब्दो नामधेयम्' इति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिमुपमानमिच्छन्ति, तेषामपि यथा गौर्गवयस्तथेति वाक्यं तज्जनिता च 'लोके यः खल गवय इति श्रयते स गोसदशः' इति बुद्धिरागम एव । यदपि गोसदृशस्य गवांशब्दवाच्यत्वज्ञानं तदप्यनुमानम्, तत्र तच्छब्दप्रयोगात् । यः खलु शब्दो यत्राभियुक्तैरविगानेन प्रयुज्यते स तस्य वाचकः। प्रयुज्यते चारण्यकेनाविगानेन गोसदृशे गवयशब्द इति । तस्मात् गो और गवय दोनों में जो अनेक अवयवों की समानतायें हैं, वे ही दोनों में रहने के कारण सादृश्य कहलाती हैं। ये समानतायें यदि गो और गवय इन दोनों में से एक मात्र के ग्रहण से भी गृहीत होती हैं, तो फिर सादृश्य भी उसी प्रकार गृहीत हो हो गया। तस्मात् प्रमाता पुरुष से दूर में रहने वाले गोपिण्ड में जो गवय के सादृश्य की प्रतीति होती है, वह स्मरण रूप ही है। केवल इतनी सी बात है कि वह स्मरण उस संस्कार से उत्पन्न होता है, जिसका उद्बोधन गोसदृश गवय के दर्शन से होता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत विषयों का भी स्मरण उपलब्ध होता है. जैसे कि अव्युत्पन्न पुरुष के द्वारा एक पिण्ड के ग्रहण के समय सविकल्पकज्ञान के द्वारा अगृहीत सामान्य का भी उसी जाति के दूसरे पिण्ड के ग्रहण के समय प्रत्यभिज्ञा होती है । नैयायिकों का कहना है कि जो प्रमाता पहिले किसी आप्त पुरुष से 'गोसदृशो गवयः' इस अतिदेश वाक्य को सुन लेता है, बाद में वही जब गवय को देखता है तो उसे यह प्रतीति होती है कि 'इसी पिण्ड का नाम गवय है। यह प्रतीति चूकि गवय शब्द रूप सज्ञा की गवय पिण्ड रूप संज्ञी में (वाच्यवाचकरूप) सम्बन्ध विषयक है। ('अयं गवयपदवाच्यः' इस आकार की प्रतीति को संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध की प्रतीति कहते हैं ), अतः यही उपमान है । किन्तु नैयायिकों का भी यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह भी वस्तुतः शब्द प्रमाण ही है, क्योंकि 'लोक में यह जो 'गवय' का नाम सुनते हैं वह गोसदृश वस्तु का हो बोधक है' यह बुद्धि भी तो 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से ही उत्पन्न होती है। एवं इससे गोसदृश पिण्ड में गवय शब्द के अभिधेय होने का जो ज्ञान होता है, वह ( उपमान न होकर ) शब्द ही है, क्योंकि गोसदृश पिण्ड में ही गवय शब्द का प्रयोग होता है, (अतः नैयायिक गण जिसे उपमान कहते हैं, वह भी शब्द जनित होने के कारण अनुमान ही है), एवं गोसदृश (गवय में) जो गवय शब्द की वाच्यता का ज्ञान होता है वह भी अनुमान ही है, क्योंकि ( यहाँ अनुमान का यह आकार है कि) आप्तगण एक स्वर से बिना विरोध के जिस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में करते हैं वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है, सभी आरण्यक आप्तजन गवय शब्द का प्रयोग उसी पिण्ड में करते हैं जो गो के समान है। तस्मात् गो-सदृश उस पिण्ड का नाम अवश्य ही 'गवय' है । एवं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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