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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान न्यायकन्दली मुपाधीनामनुपलम्भादभावप्रतीतौ ( उपलब्धानामनुपलम्भादभावप्रतीतौ) उपलब्धानां शेषकालेन्धनावस्थाविशेषाणां पुनः पुनदर्शनेषु व्यभिचारादहेतुत्वनिश्चये सति निखिलदेशकालादिविशेषाध्याहारेण न उपाध्यभावोपलब्धि. दोषः। सहभावदर्शनजसंस्कारसहकारिणा निरस्तप्रतिपक्षशङ्कन चरमप्रत्यक्षेण धूमसामान्यस्याग्निसामान्येन स्वभावमात्राधीनं सहभावं निश्चित्य इदमनेन नियतमिति नियम निश्चिनोति । यद्यपि प्रथमदर्शनेऽपि सहभावो गृहीतः, तथापि न नियमग्रहणम् । नहि सहभावमात्रान्नियमः, अपि तु निरुपाधिकसहभावात् । निरुपाधिकत्वं च तस्य भूयोदर्शनाभ्यासावशेषमित्यतो भूयःसहभावग्रहणबलभुवा सविकल्पकप्रत्यक्षेण सोऽध्यवसीयत इति । एतेन प्रत्यक्षे उपलब्धविद्यमानविषयत्वादतीतानागतासु व्यक्तिषु कथं नियमग्रहणमिति प्रत्युक्तम् । नहि तब उस में धूम के उपाधिमूलक सम्बन्ध की भी योग्यता है, किन्तु धूम की कोई भी प्रतीति वह्नि गम्बन्ध को छोड़कर नहीं होती है। तस्मात् जिन उपाधियों में उपलब्ध होने की योग्यता है ( अर्थात् जिनकी उपलब्धि हो सकती है ) उनकी अनुपलब्धि से ही उपाधियों के अभाव की सिद्धि होती है । इस प्रकार उपाधि के अभाव की प्रतीति हो जाने पर आर्टेन्धन संयोग रूप उपाधि से युक्त वह्नि हेतु में बार बार धूम का व्यभिचार देखे जाने पर वह्नि हेतु में अहेतुत्व ( हेत्वाभासत्व ) का निश्चय हो जाता है। अतः 'सभी देशों में या सभी कालों में उपाधि के अभाव की उपलब्धि नहीं हो सकती' केवल इसी कारण सभी हेतुओं में उपाधि संशय की आपत्ति नहीं दी जा सकती। अतः धूम सामान्य में वह्नि सामान्य का जो स्वाभाविक सामानाधिकरण्य है, उसके निश्चय से ही यह (धूम) इससे ( वह्नि से ) नियत है' इस प्रकार से (स्थाप्ति रूप) नियम का ज्ञान होता है। (व्याप्ति के कारणीभूत उक्त सामानाधिकरण्य का निश्चय ) प्रतिपक्ष शङ्का से रहित उस अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न संस्कार के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। यद्यपि प्रथमतः ही जब धूम और वह्नि साथ साथ देखे जाते हैं, तब भी दोनों का सामानाधिक रण्य गृहीत ही रहता है, तथापि उससे नियम (व्याप्ति ) का ग्रहण नहीं होता। किन्तु उपाधि रहित सहभाव से ही व्याप्ति का ग्रहण होता है। बार बार साध्य और हेतु को साथ देखने से ही उपाधि के अभाव का निश्चय होता है । अत: बार बार सामानाधिकरण्य के दर्शन के द्वारा बलप्राप्त (सामानाधिकरण्य विषयक) सविकल्पक प्रत्यक्ष से हो वह (नियम) गृहीत होता है। इससे नियम ( ब्याप्ति ) ग्रहण के प्रसङ्ग में इस आपत्ति का भी समाधान हो जाता है कि (प्र०) प्रत्यक्ष केवल वर्तमान काल की वस्तुओं का ही होता है, अतीत में बीते हुए एवं भविष्य काल में होनेवाले For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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