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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् '४८१ प्रशस्तपादभाष्यम् नुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेयविपरीते च सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव, तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिङ्गं भवतीति । रहे, अनुमेयरूप धर्म के किसी ( निश्चित ) अधिकरण में या सभी अधिकरणों में जिसकी सत्ता प्रमाण के द्वारा सिद्ध रहे, एवं साध्य के अभाव के निर्णीत अधिकरण में जिसकी असत्ता भी प्रमाण के द्वारा निश्चित ही हो, वही वस्तु पूर्व में अज्ञात साध्य के अनुमिति का लिङ्ग है। न्यायकन्दलो विरुद्धं सपक्षे नास्ति,विपक्षादव्यावृत्तमिति तस्य द्वितयेन लिङ्गलक्षणेन रहितत्वम् । यदनुमेयेन सम्बद्धमिति श्लोकार्थं विवणोति- यदनुमेयेनेति । अनुमेयेनार्थेन साध्यमिणा सह यद्देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितं सम्बद्धम्, अनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सपक्षे सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धं प्रमाणेन प्रतीतम्, अनुमेयविपरीते च साध्यव्यावृत्तिविषये चार्थे सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्य साध्यमिणोऽप्रतीतस्यार्थस्य साध्यधर्मस्यानुमापकं लिङ्गं भवति । यावति देशे काले वा दृष्टान्तर्धामणि लिङ्गस्य साध्यधर्मेणाविनाभावो निदशितस्तावत्येव देशे काले वा साध्यमिणि प्रतीयमानस्य गमकमिति प्रतिपादनार्थमुक्तम्-देशविशेष कालविशेषे वा सहचरितमिति । सर्वसपक्षव्यापकवत् सपक्षकदेशवृत्तेरपि हेतुत्वार्थं सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमित्युक्तम् । समस्तहेत्वाभास है ) । विरुद्ध नाम का हेत्वाभास सपक्ष में नहीं रहता और विपक्ष में रहता है, अतः विरुद्ध सपक्षवृत्तित्व और विपक्षब्यावृत्तत्व हेतु के इन दोनों लक्षणों से रहित हेत्वभास है। ___ 'यदनुमेयेनार्थेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इत्यादि श्लोक की व्याख्या करते हैं। पहिले से अज्ञात अर्थ स्वरूप साध्य (धर्म) की अनुमिति का जनक वह 'लिङ्ग' है, जो अनुमेय अर्थ के साथ अर्थात् माध्य के धर्मी ( पक्ष ) के साथ किसी देश विशेष में एवं कालविशेष मे 'सहचरित' अर्थात् सम्बद्ध हो, एवं अनुमेय ( साध्य ) रूप धर्म से युक्त ( पक्ष से भिन्न ) किसी आश्रयरूप सपक्ष के किसी एक देश में या उसके सभी देशों में 'प्रसिद्ध' हो, अर्थात् प्रमाण के द्वारा निश्चित हो, एवं अनुमेय के विपरीत अर्थात् साध्य का अभाव जिनमें निश्चित हो उन सभी आश्रयों में प्रमाण के द्वारा जिसको असत्ता भी निश्चित ही हो (वहौ लिङ्ग है)। 'देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितम्' यह वाक्य इस लिए लिखा गया है कि दृष्टान्तरूप धर्मी के जितने देश में एवं जितने काल में हेतु का साध्यरूप धर्म के साथ 'अविनाभाव' (व्याप्ति) देखा जाय, उन्हीं देशों में और उन्हीं कालों में साध्य के धर्मी (प.) में जाते हुए साध्य का वह हेतु ज्ञापक होता है । 'सर्वस्मिन्नेकदेशे या प्रसिद्धम्' यह वाक्य इस For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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