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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७६ प्रकरणम् ] भाषानुवावसहितम् न्यायकन्दली पार्थिवपरमाणावेकस्मिन्ननित्यत्वं प्रतिपादयितुमिष्यते, किन्तु चतुर्ध्वपि परमाणुष्विति समुदितानामेव पक्षत्वे स्थितेऽसिद्धवद् भागासिद्धस्यापि व्युदासः, अनुमेयसम्बन्धाभावात् । प्रसिद्धं च तदन्वित इति । तदिति योग्यत्वात् साध्यधर्मः परामृश्यते। तदन्विते साध्यधर्मान्विते सपक्षे प्रसिद्धं परिज्ञातमिति विरुद्धासाधारणयोर्व्यवच्छेदः। तदभावे च नास्त्येवेति । अत्रापि तदिति हेतु भी पक्षवृत्ति होगा, क्योंकि उन चारों प्रकार के परमाणुओं में से एक पार्थिव परमाणु में वह विद्यमान है, किन्तु वह हेतु तो भागासिद्ध हेत्वाभास है, (अतः 'हेतु' का वह 'अनुमेयसम्बद्धत्व' रूप लक्षण ठीक नहीं है)। (उ०) जिसमें साध्य और हेतु दोनों का अभाव निश्चित हो वही विपक्ष' है। यह विपक्षता (विपक्षतावच्छेदकाश्रयीभूत ) प्रत्येक विपक्ष व्यक्ति में है (विपक्षतावच्छेदकाश्रयीभूत ) सभी विपक्ष व्यक्ति समूह में ही नहीं, ( अतः किसी भी विपक्ष व्यक्ति में रहनेवाला हेतु विपक्षवृत्ति होने के कारण भागासिद्ध हेत्वाभास होता है ) 'पश्च' के प्रसङ्ग में सो बात नहीं है, क्योंकि पक्ष वही है जिसमें वादी को साध्य सिद्धि की इच्छा हो, प्रकृत में वादी की यह इच्छा नहीं है कि केवल पार्थिव परमाणु में ही अनित्यत्व की सिद्धि करे, किन्तु वादी की यह इच्छा है कि चारों प्रकार के परमाणुओं में ही अनित्यत्व की सिद्धि करे । तदनुसार उक्त चारों परमाणुओं का समूह हो पक्ष है, तदन्तर्गत एक पार्थिव परमाणु नहीं, अतः जिस प्रकार पक्षाभिमत सभी वस्तुओं में हेतु के न रहने से हेतु ( हेतु नहीं रह जाता स्वरूपासिद्ध या ) असिद्ध नाम का हेत्वाभास हो जाता है. उसी प्रकार ( पक्षान्तर्गत पार्थिव परमाणुरूप पक्ष में गन्धरूप हेतु के रहने पर भी पक्षान्तर्गत जगदि के तीनों परमाणुओं में गन्ध के न रहने से वह हेतु न होकर ) भागासिद्ध नाम का हेत्वाभास ही होगा, क्योंकि उसमें पक्षान्तर्गत जलादि परमाणुओं का सम्बन्ध न रहने के कारण पक्षान्तर्गत ही पार्थिव परमाणु का सम्बन्ध रहते हुए भी अनुमेय स्वरूव चारों परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार हेतु के लक्षण में 'अनुमेयेन सम्बद्धम्' इस विशेषण से स्पष्ट ही पक्ष में कहीं भी न रहनेवाला हेतु स्वरूपासिद्ध या भागासिद्ध हेत्वाभास होगा। 'प्रसिद्धञ्च तदन्विते' इस वाक्य में प्रयुक्त 'तत्' शब्द से साध्यरूप धर्भ ही गृहीत होता है, क्योंकि उसी का ग्रहण प्रकृत में उपयोगी है। 'तदन्विते' अर्थात साध्यरूप धर्म से युक्त अर्थात् 'सपक्ष' में 'प्रसिद्ध' अर्थात् अच्छी तरह से ज्ञात (होना हेतु के लिए आवश्यक है)। (हेतु के इस सपक्षवृत्तित्व रूप लक्षण से) विरुद्ध और असाधारण नाम के हेत्वाभासों में हेतुत्व का व्यवच्छेद होता है, अर्थात् उनमें हेतु लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं हो पाती। 'तदभावे च नास्त्येव' इस वाक्य के 'तत्' शब्द से साध्यरूप धर्म का ही ग्रहण करना चाहिए । ( तदनुसार ) इस वाक्य का यह अर्थ है कि साध्यरूप धर्म का अर्थात् साध्य का अभाव जिन आधयों में रहे उन सभी आश्रयों में जो कदापि न रहे वही (सपक्षवृत्ति For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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