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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ! www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૪૧૭ तद्गुणत्वादिषु, सम्बद्धविशेषणभावेन समवायाभावयोर्ज्ञानं जनयति । दृष्टं तावत् समाहितेन मनसाऽभ्यस्यमानस्य विद्याशिल्पादेरज्ञातस्यापि ज्ञानम् । तदितरत्रानुमानम् । आत्माकाशादिष्वभ्यासप्रचयस्तत्त्वज्ञानहेतु:, विशिष्टाभ्यासत्वात् विद्याशिल्पाद्यभ्यासवत् । तथा बुद्धेस्तारतम्यं क्वचिन्निरतिशयं सातिशयत्वात् परिमाणतारतम्यवत् । ननु सन्ताप्यमानस्योदकस्यौष्ण्ये तारतम्यमस्ति न च तस्य सर्वातिशायी वह्निरूपतापत्तिलक्षण: प्रकर्षो दृश्यते । नापि लङ्घनाभ्यासस्य क्वचिद् विश्रान्तिरवगता, न सोऽस्ति पुरुषो यः समुत्प्लवेन भुवनत्रयं लङ्घयति । उच्यते - यः स्थिरायो धर्मः स्वाश्रये च विशेषमारभते सोऽभ्यासः क्रमेण प्रकर्षपर्यन्तमासादयति । यथा कलधौतस्य पुटपाकप्रबन्धाहिता शुद्धिः परां रक्तसारताम् । न चोदकतापस्य स्थिर आश्रयो यत्रायमभ्यस्यमानः परां काष्ठां गच्छेत्, For Private And Personal साधारण जनों की चिन्ता के भी बाहर है । उस धर्म के बल से अन्तःकरण उनके शरीर से बाहर होकर दूसरों की आत्मा प्रभृति वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होता है । ( दूसरों की आत्मा में ) अन्तःकरण के संयोग से दूसरी आत्मा का एवं ( उसी सयोग से युक्त ) संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले गुणादि का, एवं संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध से उन गुणादि में समवाय सम्बन्ध से रहनवाले गुणत्वादि धर्माका, एवं परात्मसम्बद्ध विशेषणतासम्बन्ध से उस आत्मा में रहनेवाले समवाय और अभाव का प्रत्यक्ष योगियों को होता है । क्योंकि पूर्व से सर्वथा अज्ञात विद्या एवं शिल्पादि ज्ञान का भी समाधि युक्त मन के द्वारा अभ्यास करने पर योगियों को होता है । इस प्रसङ्ग में इससे यह अनुमान फलित होता है कि जिस प्रकार विशेष प्रकार के अभ्यास से योगियों को विद्या शिल्पादि का ज्ञान देखा जाता है, उसी प्रकार विशेष प्रकार के अभ्यास के कारण उनको आकाश एवं दूसरे की आत्मा प्रभृति अतीन्द्रिय विषयों का भी प्रत्यक्ष होता है । एवं इसी प्रसङ्ग में यह प्रयोग भी है कि जैसे परिमाण के आधिक्य का विश्राम आकाश की न्यूनता का विश्राम परमाणुओं में होता है, उसी प्रकार बुद्धि की विशदता का भी कहीं विश्राम अवश्य होगा ( वह आश्रय योगियों और परमेश्वर की बुद्धि ही है) । (४०) आग पर चढ़े हुए जल की गर्मी में न्यूनाधिक भाव देखा जाता है, किन्तु उसके आधिक्य की पराकाष्ठा-जो प्रकृत में जल का आग में परिवर्तित हो जाना ही है-नहीं देखा जाता । एवं यह भी नियम नहीं है कि सभी की चरम विभान्ति हो ही, क्योंकि लङ्घन (कूदना) के अभ्यास की चरम परिणति नहीं देखी जाती । कोई भी पुरुष ऐसा उपलब्ध नही है जो कूदकर तीनों भुवनों को लाँघ सके । ( अतः उक्त अनुमान ठीक नहीं है ) । ( उ० ) इसके उत्तर में कहना है कि स्थिर आश्रय में रहनेवाला जो धर्म है, वही अपन आश्रय में वैशिष्ट्यका सम्पादन कर सकता है, और उसी का अभ्यास क्रमशः चरम सीमा दूसरा अनुमान एव परिमाण
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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