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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम् ४५१ न्यायकन्दली प्रत्यक्षेण गृह्यते, हेतुत्वस्य ग्राह्यलक्षणत्वादवस्तुनश्च समस्तार्थक्रियाविरहात् । क्षणस्तु परमार्थसन्नक्रियासमर्थत्वात् प्रत्यक्षस्य विषयः। स च विकल्प. कालाननुपातीत्युक्तम्, कुतो विषयैकता ? अस्तु वा विकल्पप्रत्यक्षयोरनिरूपितरूपः कश्चिदेकः प्रवृत्तिसंवादयोग्यो विषयः, तथापि विकल्पः प्रमाणत्वं नातिवर्तते, धारावाहिकबुद्धिवदर्थपरिच्छेदे पूर्वानपेक्षत्वात्, अध्यवसितप्रापणयोग्यत्वाच्च । प्रमाणत्वे चावस्थिते प्रत्यक्षमेव स्याल्लिङ्गाद्यभावादर्थेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाच्च । यत् पुनरयमर्थजो भवन्नपि निर्विकल्पकवदिन्द्रियापातमात्रेण न भवति, तदिन्द्रियार्थसहकारिणो वाचकशब्दस्मरणस्यावस्तुओं में रहनेवाले अपोह या अन्य व्यावृत्ति ) अभाव रूप है, अतः क्षणों का साधारण रूप हो या सभी क्षणिक वस्तुओं में समारोपित ही हो-किसी भी स्थिति में उसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि अबस्तु ( अभाव ) से कोई काम नहीं हो सकता ( अतः उससे प्रत्यक्ष रूप कार्य भी नहीं हो सकता, किन्तु प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण है ) चूंकि क्षण (वृत्ति घटादि वस्तुओं ) की परमार्थसत्ता है, अतः वे ही अर्थक्रियाकारी होने से अपने निर्विकल्पक प्रत्यक्ष रूप कार्य का उत्पादन कर राकते हैं । किन्तु निर्विकल्पक प्रत्यक्ष काल में रहनेवाले विषय सविकल्पक प्रत्यक्ष के समय तक ( आप के मत से ) रह नहीं सकते, अतः ( आपके मत से ) निर्विकल्पक ज्ञान और सविकल्पक ज्ञान दोनों एक-विषयक हैं' इसकी उपपत्ति किस प्रकार की जा सकती है ? यदि यह मान भी लें (कि उक्त ऐक्य व्यवहार में समर्थ ) दोनों प्रत्यक्षों का एक ही कोई अनिर्वचनीय विषय है तब भी सविकल्पक प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व को कोई हटा नहीं सकता, क्योंकि धारावाहिक बुद्धि को तरह इसमें विषय के निर्धारण के लिए पहिले किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं है, एवं अपने द्वारा निश्चित विषय को प्राप्त कराने की योग्यता भी है । इस प्रकार सविकल्पक ज्ञान में प्रमाणत्व के निश्चित हो जाने पर यही कहना पड़ेगा कि वह प्रत्यक्ष प्रमाण ही होगा, क्योंकि अनुमान प्रमाण मानने के प्रयोजक लिङ्गादिज्ञान वहाँ नहीं है, एवं ( प्रत्यक्षत्व के प्रयोजक ) इन्द्रिय का अन्वय और व्यतिरेक भी है। निर्विकल्पक ज्ञान की तरह अर्थजनित होने पर भी जो विषयों के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होते ही सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, उसका यह कारण है कि विषय के वाचक शब्द का स्मरण उससे पहिले नहीं होती है, उसका यह कारण है कि विषय के वाचक शब्द का स्मरण उससे पहिले नहीं रहता है, क्योंकि सविकल्पक ज्ञान के उत्पादन में वाचक शब्द का स्मरण भी इन्द्रिय और अर्थ का सहकारी है ( अर्थात् वाचक शब्द का स्मरण भी सविकल्पक ज्ञान का सहकारि कारण है)। (प्र.) तो फिर स्मृति के बाद उत्पन्न होनेवाला यह विकल्प स्मृति से ही उत्पन्न होता है, इन्द्रिय और अर्थ से नहीं, क्योंकि इन्द्रिय, अर्थ एवं सविकल्पक ज्ञान इनके मध्य में स्मृति आ जाती है। (उ०) क्या सहकारी कारण मुख्य कारण में जो काय करने की शक्ति है उसे रोक देता है ? तो फिर बीज भी अङ्कर का कारण नहीं होगा, क्योंकि बीज और अङ्कुर के बीच में पृथिवी और जल भी आ जाता है । ( जिससे For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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