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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् भवति, तथाप्यतीतस्य ज्ञानप्रबन्धस्य प्रत्यवेक्षणात् स्मृतिरेवेति भवत्येषा चतुर्विधाऽविद्येति । विद्यापि चतुर्विधा - प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्पलक्षणा | Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ज्ञान होता है, किन्तु वह अतीत के किसी ज्ञान के सदृश ही दूसरा ज्ञान हैं, अत: स्मृति ही है, तस्मात् कथित रीति से 'अविद्या' रूप ज्ञान के कथित चार ही प्रकार हैं । न्यायकन्दली ४४१ ६७. (अविद्या की तरह ) विद्या भी चार प्रकार की है, उसके (१) प्रत्यक्ष (२) लैङ्गिक (३) स्मृति और (४) आर्ष ( ये चार ) भेद हैं । For Private And Personal तैलाभ्यञ्जनखरोष्ट्रारोहणाद्यधर्मसंस्काराभ्यां भवति । अत्यन्ताप्रसिद्धेषु स्वतः परतश्चाप्रतीतेषु चन्द्रादित्यभक्षणादिषु ज्ञानं तददृष्टादेव, अननुभूतेषु संस्काराभावात् । यद्यपि संस्कारवाद्धातुदोषाददृष्टाद् वा समारोपितबाह्यस्वरूपः स्वप्नप्रत्ययो भवन्नर्तास्मस्तदिति भावाद् विपर्ययः, तथाप्यवस्थाविशेषभावित्वात् पृथगुक्तः । कदाचित् स्वप्नदृष्टस्यार्थस्य स्वप्नावस्थायामेव प्रतिसन्धानं भवति - अयं मया दृष्ट इति, तच्च पूर्वानुभूतस्य स्वप्नस्यान्तेऽवसाने भवतीति प्रवेश, सोने का पर्वत उदित सूर्यमण्डल प्रभृति वस्तुओं को स्वप्न में देखता है । जिस पुरुष में कफ की प्रधानता रहती है या जिसका कफ दूषित रहता है वह नदी और समुद्रों में तैरने का एवं बरफ के पर्वतादि का स्वप्न देखता है । स्वयं अनुभूत किन्तु और स्थानों में अप्रसिद्ध, अथवा अपने से अननुभूत किन्तु और स्थानों में प्रसिद्ध वत्र्त्तमान वस्तुओं के जो स्वप्न शुभ के ज्ञापक होते हैं, जैसे कि हाथी पर चढ़ना, छत्र का लाभ प्रभृति -- ये सभी स्वप्न, पुण्य और संस्कार से होते हैं । शुभ के ज्ञापकों से विरुद्ध जितने भी स्वप्न हैं, जैसे कि तेल का मालिश, गदहे पर चढ़ना, ऊँट पर चढ़ना — ये सभी स्वप्न अधर्म और संस्कार इन दोनों से होते हैं 'अत्यन्त अप्रसिद्ध' अर्थात् अपने से या दूसरों से सर्वथा 'अज्ञात' चन्द्र सूर्यादि के भोजन का स्वप्नात्मक ज्ञान केवल अदृष्ट से ही होता है, क्योंकि बिना अनुभव किये हुए किसी वस्तु का संस्कार नहीं होता । यद्यपि संस्कार की पटुता, धातु के दोष, अथवा अदृष्ट से उत्पन्न स्वप्नज्ञान में चूंकि बाह्य विषयों का ही समारोप होता है अतः तदभाव युक्त आश्रय में तत्प्रकारक होने के कारण बह विषय ही है, तथापि ( और विपर्ययों से ) विशेष अवस्था के कारण ( विपर्यय से ) अलग कहा गया है । कभी कभी स्वप्न में देखी हुई वस्तु का स्वप्न में ही इस प्रकार से अनुसन्धान होता है कि 'इसको मैंने देखा । यह ( अनुव्यवसाय ) पहिले अनुभूत स्वप्न के अन्त में होने के कारण 'स्वप्नान्तिक' कहलाता है । किसी का यह भी आक्षेप है ५.६
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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