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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् मानसं तत् स्वप्नज्ञानम् । कथम् ? यदा बुद्धिपर्वादात्मनः शरीरव्यापारादहनि खिन्नानां प्राणिनां निशि विश्रामार्थविषयों के ग्रहण से विमुख रहते हैं, उस व्यक्ति को केवल मन रूप इन्द्रिय से जो ज्ञान होता है वही स्वप्न ज्ञान' है । (प्र०) यह किस प्रकार उत्पन्न न्यायकन्दली कोटिसंस्पर्शी संशयो न त्वयमिति भेदः । विद्या त्वयं न भवति, व्यवहारानङ्गत्वादिति । ___ स्वप्ननिरूपणार्थमाह-उपरतेन्द्रियग्रामस्येत्यादि। उपरतः स्वविषयग्रहणाद् विरत इन्द्रियग्रामो यस्य असावुपरतेन्द्रियग्रामः । प्रकर्षण सर्वात्मना लीनं मनो यस्यासौ प्रलीनमनस्क इति । तस्योपरतेन्द्रियग्रामस्य प्रलीनमनस्कस्येन्द्रियद्वारेण यदनुभवनं पूर्वाधिगमानपेक्ष परिच्छेदस्वभावं मानसं मनोमात्रप्रभवं तत् स्वप्नज्ञानम् । यदा यथा पुरुषस्य मनः प्रलीयते इन्द्रियाणि च विरमन्ति तदर्शयति-कथमित्यादिना । आत्मनः शरीरव्यापाराद् गमनागमनादहनि खिन्नस्य परिश्रान्तस्य प्राणिनो निशि रात्रौ विश्रामार्थं श्रमोपशमार्थं भुक्तपीतस्याहारस्य रसादिभावेन परिणामार्थ चादष्टेन कारितं प्रयत्नमपेक्षमाणादात्मान्तःकरणसंयोगान्मनसि यः क्रियाप्रबन्धः क्रियासन्तानो जातस्तस्मादन्तहृदये निरिन्द्रिये बाह्येन्द्रियसम्बन्धशून्ये आत्मप्रदेशे निश्चलं मनस्तिष्ठति यदा, तदा पुरुषः प्रलीनमनस्क इत्याख्यायते। प्रलीने च तस्मिन् मनस्युपरतेन्द्रिस व्यवहार नहीं चल पाता अतः यह ज्ञान ‘अविद्या' रूप ही है, यह विद्या के अन्तर्गत नहीं आ सकता। 'उपरतेन्द्रियग्रामस्य' इत्यादि वाक्य स्वप्न के निरूपण के लिए लिखे गये हैं । 'उपरतः इन्द्रियग्रामो यस्य असौ उपरतेन्द्रियग्रामः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने २ विषयों के ग्रहण से उपरत' हैं अर्थात् अपने विषयों को ग्रहण करना छोड़ दी हैं वही पुरुष उपरतेन्द्रियग्राम' शब्द का अर्थ है । 'प्रकर्षण लीनं मनो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्रकोण' अर्थात् पूर्ण रूप से ( किसी विषय में ) लीन है मन जिसका वही पुरुष 'प्रलोनमनस्क' शब्द का अर्थ है। (इस प्रकार के ) उपरतेन्द्रिय ग्राम और प्रलीन मनस्क पुरुष को इन्द्रिय के द्वारा जो विचार रूप एवं मानस अर्थात् मनोमात्रजन्य पहिले के ज्ञानों से सर्वथा अनपेक्ष अनुभव होता है वही 'स्वप्न' है। 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह दिखलाया गया है कि किस समय और किस प्रकार से मन प्रलोन होता है एवं इन्द्रियाँ विषयों के ग्रहण से उपरत होती हैं। शरीर के व्यापार अर्थात गमन और आगमन के द्वारा 'खिन्न' अर्थात् थके हुए प्राणियों को निशा अर्थात् रात में विश्राम' अर्थात् थकावट को मिटाने के लिए एवं खाये और पिये हुए द्रव्य को रसादि रूप में परिणत करने के लिए आत्मा और अन्त:करण के संयोग से मन For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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