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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२५ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली प्रतिभाति सर्वं सर्वत्र प्रतिभासेत, नियमहेतोरभावादित्यत्राह--असन्निहितविषयज्ञानजसंस्कारापेक्षादात्ममनसोः संयोगादिति । असन्निहितो विषयोऽश्वादिस्ततः पूर्वोत्पन्नाज्ज्ञानाज्जातो यः संस्कारस्तमपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगाद् विपर्यय इति । अयमस्यार्थः--गोपिण्डसंयुक्तमिन्द्रियं गोत्वमगृह्णपि तं पिण्डं गोसादृश्यविशिष्टं गृह्णाति, सांशत्वाद् वस्तुनः । तेन च सादृश्यग्रहणेनाश्वविषयः संस्कारः प्रबोध्यते । स च प्रबुद्धोऽश्वस्मृतिजनने प्राप्ते मनोदोषादिन्द्रियसंयुक्ते गव्यश्वसादृश्यानुरोधादनुभवाकारामश्वप्रतीति करोति, अतो न सर्वस्य सर्वत्रावभासः, सादृश्यसंस्कारयोः प्रतिनियमहेतुत्वात् । अत एव चेयं गुरुभिरिन्द्रियजा भ्रान्तिरुच्यते । एवं हीन्द्रियजा न स्याद् यदीयं संस्कारैकसामर्थ्यादसन्निहितमनधिकरणमश्वत्वमात्रमेव गृह्णीयान्निरुद्धेन्द्रियव्यापारस्य वा भवेत्, गोत्वादि ) विशेष धर्मों की अनुपलब्धि को ( गो में 'यह अश्व है। इस आकार के ) विपर्यय का कारण माना गया है। (प्र०) गो ( ज्ञाता पुरुष के) समीप में है, उसके गोत्वादि विशेष धर्म तो ज्ञात नहीं हो पाते, किन्तु जो अश्व उसके अप्रत्यक्ष एवं दूर है उसके अश्व. त्वादि विशेष धर्मों का ज्ञान होता है, इसमें क्या हेतु है ? इसी प्रश्न का समाधान 'पित्तकफानिलोपहितेन्द्रियस्य' इस वाक्य से दिया गया है। पित्तञ्च, कफश्च, अनिलश्च पितकफानिलाः, तैरुपहतमिन्द्रियं यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पित्त कफ और वायु से जिस पुरुष की इन्द्रिय दूषित हो गयी है वही पुरुष 'पित्तकफानिलोपहतेन्द्रिय' शब्द का अर्थ है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार से दूषित इन्द्रियवाले पुरुष को ही यह विपर्यय ज्ञान होता है। इससे कफ, पित्त, वायु प्रभृति दोषों में समीप की वस्तुओं के अज्ञान एवं दूर की वस्तुओं के ज्ञान इन दोनों के उत्पादन की शक्ति समर्थित होती है। (प्र०) अगर केवल दोष के सामर्थ्य से ही दूर के विषय प्रतिभासित होते हैं, तो फिर मभी विषयों का प्रतिभास (विपर्यय ) सर्वत्र हो, क्योंकि ( अमुक स्थान में ही अमुक वस्तु का प्रतिभास हो इस ) नियम का कोई कारण नहीं है ? इसी प्रश्न के समाधान में 'असंनिहितविषयज्ञानसंस्कारापेक्षादात्ममनसोः संयोगात्' यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् अश्वादि असंनिहित विषयों का बहुत पहिले से जो ज्ञान हो चुका है, उस ज्ञान से उत्पन्न संस्कार की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा विपर्यय की उत्पत्ति होती है। अभिप्राय यह है कि कथित रूप से दूषित इन्द्रिय गोरूप पिण्ड में संयुक्त रहने पर भी उसमें रहनेवाले गोत्व का ग्रहण नहीं करती है, ( फलतः गोत्व रूप से गो का ग्रहण नहीं करती है ) किन्तु गोपादृश्य से युक्त ( अश्यादि ) अर्थों का ही ग्रहण करती है, क्योंकि वस्तुओं के अनेक रूप हैं। इस सादृश्य के द्वारा अश्वविषयक संस्कार प्रबुद्ध हो जाता है। इस प्रबुद्ध संस्कार के द्वारा यद्यपि अश्व की स्मृति ही उचित है, फिर भी मन के दोष से गो में अश्व के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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